Monday, December 13, 2010

लोकतंत्र के राजा.....

राजतंत्र नहीं रहा, उसकी जगह प्रजातंत्र आ गया, लेकिन अंतर क्या आया? अब एक राजा की जगह कई राजा मिल कर आम आदमी का शोषण करते हैं, वह भी इतनी सफाई से कि आम आदमी को भनक तक नहीं लगती. कुछ ऐसे ही राजाओं की ख़बर ली है चौथी दुनिया ने. आरटीआई से मिली सूचना के मुताबिक़, इन राजाओं की प्यास बुझाने के लिए आम आदमी को अपनी करोडों़ की कमाई गंवानी पड़ रही है. अपना घर अंधेरे में रखकर राजाओं के आलीशान महलों (मुख्यमंत्री आवास) को रोशन कर रहा है आम आदमी. खु़द के सिर पर छत नहीं, लेकिन वह इन राजाओं के महलों की पेंटिंग पर ही लाखों रुपये ख़र्च कर रहा है.

राज्य के मुख्यमंत्री भी जनता की जेब ढीली कर सुख-सुविधा भोगने में पीछे नहीं हैं. वह भी तब, जब दिल्ली जैसे शहर में 80 हजा़र से ज़्यादा लोगों के सिर पर छत नहीं है. विदर्भ में अब तक 2 लाख से ज़्यादा किसान असमय मौत को गले लगा चुके हैं. उत्तर प्रदेश में हर साल सैकडों़ बच्चे इंसेफ्लाइटिस की वजह से दम तोड़ देते हैं, लेकिन इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जीवनशैली पर नज़र डालें तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देती है. चमक-दमक से भरपूर तस्वीर. बिल्कुल इंडिया शाइनिंग की तरह. जिस देश की एक बडी़ आबादी को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं, वहीं इन राज्यों में से एक के मुख्यमंत्री आवास का पानी का बिल 62 लाख रुपये आए तो इसे आप क्या कहेंगे? उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के कितने गांवों तक बिजली पहुंची है. और अगर पहुंचती भी है तो कितने घंटों के लिए, यह रिसर्च का मामला हो सकता है, लेकिन इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने आवास को रोशन करने के लिए महीने में 20 लाख रुपये से ज़्यादा बिजली पर ख़र्च कर देते हों तो इसे आप क्या कहेंगे? चौथी दुनिया ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा आरटीआई के ज़रिए जुटाया है. प्राप्त सूचना के विश्लेषण से पता चलता है कि कैसे आम आदमी की गाढी़ कमाई इन राज्यों के मुख्यमंत्री आवासों पर बेहिसाब ख़र्च की जा रही है.

प्रधानमंत्री भले ही अपने मंत्रियों को विदेश दौरे न करने, सरकारी ख़र्च घटाने की सलाह देते रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री अपने आवास की रंगाई-पुताई पर पांच सालों में 86 लाख रुपया पानी की तरह बहा देते हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती की शाही आदत के मुताबिक़ ही उनके आवास के रखरखाव पर बेशुमार पैसा ख़र्च किया जा रहा है. और यह सब कुछ हो रहा है एक ऐसे देश में, जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. 70 फीसदी आबादी की रोज की आय 20 रुपये से भी कम है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकडों़ के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. पांच साल से कम उम्र के अंडरवेट (उम्र के हिसाब से कम वजन) बच्चों की सूची में भारत की हालत बांग्लादेश, पूर्वी तिमोर और यमन जैसी है.

भारत में नाइजीरिया के मुका़बले ज़्यादा भूखे और कुपोषित लोग हैं. देश की राजधानी दिल्ली की जन वितरण प्रणाली के तहत ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. एपीएल कोटे वाले के पास बीपीएल कार्ड हैं. उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में किसान मर रहे हैं, लेकिन इस सबसे बेपरवाह हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मजा़ ले रहे हैं.

यह सब कुछ एक ऐसे देश में हो रहा है , जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकडों़ के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. अंडरवेट बच्चों की सूची में भारत की हालत बांग्लादेश, पूर्वी तिमोर और यमन जैसी है. जन वितरण प्रणाली के तहत ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में किसान मर रहे हैं. लेकिन हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मजा़ ले रहे हैं.

Saujany-चौथी दुनिया

Saturday, November 27, 2010

कांग्रेस, भारत का अभिशाप..

जब मै बच्चा था तो अक्सर सुनता था की कांग्रेस सरकार घोटालो की सरकार होती है म और जब भी कांग्रेसी सत्ता में आते है देश में महंगाई, भ्रष्टाचार रॉकेट स्पीड से बढ़ जाता है, लेकिन तब मुझे ये बाते समझ में नहीं आती थी, आज जब देश में पिछले छ सालो से कांग्रेस की सरकार है और देश में चारो तरफ अराजकता का बोल बाला है, एक के बाद पडोसी देशो से सम्बन्ध खराब होते जा रहे है, चाइना देश में घुसा आ रहा है और देश की जमीन पर धीरे धीरे कब्जा़ करता आ रहा है, महंगाई तो अभूतपूर्व तरीके से बढती जा रही है और इसके लिए प्रधानमंत्री और उनके सेनापति प्रणव डा के दो पेट संवाद सुन रहा हू
*अन्तराष्ट्रीय महंगाई की वजह से देश में महंगाई बढी़ है
*हम महंगाई पर जल्द काबू पा लेंगे
पहले का जवाब तो ये है की पूरे यूरोप में मैंने पिछले सालो में आर्थिक मंदी की वजह से चीजो के दाम सिर्फ घटते देखे सिर्फ भारत अपवाद रहा जहा मंदी तो आई, लाखो नौकरिया गयी, हा दाम लगातार बढ़ते रहें अब इसकी दूसरी वजह रही जमाखोरी कालाबाजारी और माननीय गृहमंत्री का गेहू और चीनी आयत , निर्यात कारनामा जिसे टुकडो़ के लालच में सरकार का पूरा समर्थन था.
महंगाई तो घटी नहीं इसका इंतजा़र करते करते ६ साल में एक बुजुर्ग पीढी़ जरूर घट गयी होगी,

फिर देखा की किस तरह अफज़ल गुरु, कसाब जैसे देशद्रोहियों को देश का मेहमान बनाया गया , कैसे कांग्रेस के शहपर राज ठाकरे नाम के विछिप्त ने उत्तर भारतीयों के जान तक लेने में संकोच नहीं किया और एक भय, आतंक और गृहयुद्ध जैसा माहौल बना दिया अपने ही देश में लोग बेगाने हो गए..और वोट बैंक के लालच में कांग्रेस ने उसे शह देना जारी रक्खा, देखा की कैसे संवैधानिक मजबूरियों को सोनिया जी के त्याग का नाम देकर और जरखरीद गुलाम मीडिया हाउस को पद्मश्री और विज्ञापन जैसे हड्डी के टुकडे देकर इसे बहुप्रचारित करवाया गया , जिस प्रदेश में उत्तर भारतीयों की जाने जाते वक़्त एक भी पुलिस वाला बाहर नहीं दिखा उसी प्रदेश में एक "हीरो नुमा जीरो " बाबा बहादुर के जाने पर सारी पुलिस और सेना के साथ मुख्यमंत्री तक सडको पर लोट गए.

यहाँ तक तो फिर भी ठीक था फिर कांग्रेस ने शुरू किया वो खेल जो गाँधी परिवार ने बहुत पहले छोटे स्टार पर शुरू किया था , तस्करी और भ्रष्टाचार...शुरुआत शरद पवार जी के गेहू और चीनी घोटाले से हुई लेकिन दूसरी बार पता नहीं एक भ्रष्ट चुनाव आयुक्त और इ वी एम मशीनों की मेहरबानी या जनता की गलती से संप्रग फिर सत्ता में आई हा कुछ बदलावों और खतरनाक इरादों के साथ तो आते ही सत्ता दर्प और भ्रष्टाचार का वो माहौल दिखाया की जनता की रूह काँप जाए..नीरा रादिया, वोर संघवी और बरखा दत्त जैसे दलाल मंत्रिपरिषद बनाने लगे और हमारे कठपुतली प्रधानमंत्री जी बस पूंछ हिलाते रहे..

शुरुआत हुई ७०,००० करोड़ के राष्ट्रमंडल खेलो से जिसे जनता अब कहती है, और तमाम याचिकाओं, शिकायतों के बावजूद सरकार कान में तेल डाले रही क्युकी हिस्सा तो आला कमान से नीचे तक सबको मिल रहा था.. उसके बाद पता लगा की शहीदों की विधवाओं के नाम पर बने फ्लैट को कांग्रेसी नेताओं , मुख्यमंत्री और सेना के अफसरों ने अपने बाप का माल समझ लिया...और सास से लेकर दामाद तक सबको उपकृत किया गया..
उसके बाद आया वो घोटाला जिसने जनता की नेताओं के बारे में विश्वास को हिलाकर रख दिया, भारत के इतिहास का सबसे बडा़ घोटाला जिसने देश के खजाने को १,७६, ००० करोड़ का नुकसान पहुचाया...और अब सबसे नया फर्जी हाऊसिंग लोन घोटाला...और मजे की बात तो ये की कांग्रेस खुद को पाक साफ़ तो कहती है हा जाँच नहीं करना चाहती, और अगर हो भी तो खुद ही करना चाहती है,,क्युकी केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त वैसे भी कांग्रेस ने एक आर्थिक अपराधी को ही बनाया है तो चोर चोर मौसेरे भाई...

अंत में इतना ही कहना चाहूँगा की आज इन घोटालो की वजह से देश में चारो तरफ एक अराजकता, एक हताशा का माहौल है, लेकिन कभी कभी लगता है की कही ये तूफा़न के आने के पहले की शांति तो नहीं , कही ऐसा तो नहीं की एक दिन जनता उट्ठे और इन सत्ताधीशो के खिलाफ कानून हाथ में ले ले वैसे बिहार में भ्रष्टाचार का जवाब मिल गया है और शायद आगे भी जनता साबित कर दे की वो बेवकूफ नहीं है...

चलते-चलते ---श्री सुब्रह्मण्यम स्वामी जी के अनुसार 2G घोटाले में ६०,००० करोड़ रिश्वत के तौर पर बनते गए जिसमे से १० संचार मंत्री ए रजा तथा ३०:३०:३० करूणानिधि तथा सोनिया गाँधी की दो बहनों नाडिया और अनुष्का के खाते में गए...

जय हो..

Tuesday, June 8, 2010

गरीब देश के अमीर सच

भारत एक गरीब देश है। यहां गरीबी की सरकारी रेखा के नीचे तीस करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं जितनी इंग्लैंड की आबादी भी नहीं है। कालाहांडी में भूख से हर साल लोग मरते हैं और जो लोग बच जाते हैं वे दूर दूर के शहरों में कहीं रिक्शा चलाते हैं तो कहीं मजदूरी करते हैं।
पर क्या वास्तव में भारत एक गरीब देश है? मैं आपको भारत के साधनों, संसाधनों, संस्कृति और एक जमाने में सोने की चिड़िया वाला प्रवचन देने नहीं जा रहा। आपको एक सच बताना है और वह सच यह है कि अगर काला धन स्विस बैंकों में रखना अगर ओलंपिक या कॉमनवेल्थ का कोई खेल होता तो भारत एक झटके में रूस, अमेरिका और चीन सबको परास्त कर देता।
स्विट्जरलैंड में भारतीय लालाओं और नेताओं का जो काला धन जमा हैं उसकी अगर टॉप 5 की सूची बनाई जाए तो भारत सबसे शिखर पर हैं। अमेरिका तो बेचारा इतना पैसा होने के बावजूद टॉप 5 में नहीं है। वैसे भी अमेरिका के लोग स्विस बैंक की बजाय पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इराक पर पैसा खर्च करना ज्यादा पसंद करते है। अच्छी खबर यह है कि बहुत लंबी कसरत के बाद स्विजट्जरलैंड की सरकार भारत के लोगों द्वारा वहां जमा पैसा बताने और शायद वापस करने पर राजी हो गई है। एक मोटे आंकड़े के हिसाब से पंद्रह सौ अरब डॉलर से ज्यादा काला धन विदेशी बैंकों में जमा हैं और यह रकम भारत पर सारे विदेशों कर्जों से तेरह गुना ज्यादा है।
यह रकम मधु कोडा जैसे नेताओं की हैं, भ्रष्ट आईएएस, आईआरएस, आईपीएस और आईएफएस अफसरों की है। आप अगर वीजा और पासपोर्टो की सूची बनाएं तो ये लोग सबसे ज्यादा यात्राएं स्विट्जरलैंड की ही करते हैं और वे सिर्फ वहां की सुंदरता देखने नहीं जाते। अगर यह सारा पैसा वापस आ जाए तो भारत में 45 करोड़ लोगों को एक एक लाख रुपए मिल सकते हैं और गरीबी की सीमा रेखा कब की गायब हो जाएगी। 24 घंटे में हम सारा विदेशी कर्ज उतार सकते हैं और इसके बाद भी हमारे पास अपार पैसा बचा रह जाएगा। सिर्फ इसके ब्याज से भारत का सालाना बजट पेश किया जा सकता हैं।
जाहिर है कि अपने देश में कुछ के पास है तो बहुत हैं और बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो भूखे रहने पर मजबूर हैं और उनके बच्चे मजदूरी करते हैं।गरीबी और अमीरी के बीच जो खाई है उस पर पुल बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई। क्योंकि अगर पुल बन जाएगा तो भूखे मर रहे लोग इस पार के समाज में आ जाएंगे और जब देखेंगे कि उनकी कीमत पर ये समाज इसके कुछ लोग ऐश कर रहे हैं तो उनकी मुद्रा हमलावर होगी

Friday, May 28, 2010

दरिद्र प्रदेश में दौलत की देवी

मालामुर्ती क्षमा कीजियेगा मायावती ‘दलित की बेटी’ होने के विशेषण का इजहार करते हुए अपने विरोधियों को सियासत के मैदान में चुनौती देती हैं और विरोधी जवाब में उन्हें ‘दौलत की बेटी’ के विशेषण से नवाजा करते हैं। दोनों ही विशेषण अपनी जगह सौ फीसदी सही हैं। मायावती जन्मना दलित की बेटी हैं और कर्मणा वह दौलत की बेटी बन चुकी हैं।

बेचारी उत्तर प्रदेश की जनता चाहे तो उन्हें ‘दौलत की देवी’ कह ले! बसपा की मुखिया मायावती ने मुख्यमंत्री की हैसियत से प्रदेश वासियों की झोली में चाहे कुछ दिया हो या न दिया हो, लेकिन इतना तो बड़े भरोसे से कहा जा सकता है कि सूखा और बाढ़ की चक्की में पिसते प्रदेश की गरीब जनता ने उन्हें करोड़पति बना दिया है। वह भी कोई छोटा-मोटा करोड़पति नहीं, ऐसा करोड़पति जो तेजी से अरबपति होने की राह पर चल रहा है।

महज तीन बरस में उनकी सम्पत्ति में 34 करोड़ का इजाफा हुआ है। उत्तर प्रदेश की विधान परिषद के लिए द्विवार्षिक चुनाव का नामांकन करते हुए दलित की बेटी मायावती ने अपनी सम्पत्ति का जो ब्यौरा दिया है, उसके मुताबिक उनकी दौलत पिछले तीन सालों में 52 करोड़ रुपए से बढ़कर 87 करोड़ रुपए हो गई है। इसका मतलब यह हुआ कि उनकी हर महीने की औसत आमदनी लगभग तीन करोड़ रुपए के बराबर रही। अपने आप में यह कम दिलचस्प नहीं है कि इन बरसों में जब समूची दुनिया समेत अपने देश की अर्थव्यवस्था भी घनघोर मंदी के भंवर में ऊभचूभ कर रही थी और बड़े-बड़े उमियों के पसीने छूट रहे थे, तब भी मायावती की दौलत का ग्राफ उत्तरोत्तर ऊंचाई की सीढ़ियां चढ़ता रहा।

इसका एक अर्थ तो यही हुआ कि जनता की सेवा और प्रदेश के निर्माण का जो पारिश्रमिक है, उस पर आर्थिक मंदी और सूखा-बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोप का कोई असर नहीं पड़ता!। खैर ये तो वो संपत्ति है जिसको दिखाया गया है , इसके अलावा घोड़ी बछेड़ा की जमीन जिसके लिए 4 किसानो की जान ले ली इस ड्राकुला सरकार ने , बादलपुर की वो अरबो की लागत से बन रही कोठी जिसकी वजह से एक देशभक्त शहीद को घर से बेदखल करने में सारा प्रशाशनिक अमला लगा हुआ है, लखनऊ में जिस जमीन के लिए एक जज के परिवार को मानसिक प्रताड़ना दी जा रही है,विभिन्न जिलो में बसपा नेताओं द्वारा बनाई जा रही बेनामी संपत्तियां और सबसे बड़ी वो करोडो की माला जिसने मायावती को मालामुर्ती बना दिया उसका जिक्र नही है, वरना बात अरबो तक पहुचती.

बहरहाल, वैभव के इस विवरण के सामने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की कुल 50 लाख डॉलर की सम्पत्ति को रखकर देखें तो लगेगा कि अमीरी के मामले में वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के आगे कहीं नहीं ठहरते।

क्या इसका एक अर्थ यह नहीं निकलता कि अमेरिका की तरह जिन देशों के शासनाध्यक्षों की सम्पत्ति संतुलित व सामान्य है, वे देश तो विकास करते हैं, मगर जिस देश के प्रदेशों के मायावती, जयललिता और मधु कोड़ा सरीखे तेजी से अमीर होने वाले चरित्र हीन, धनलोलुप, रक्तपिपासु और मानवता के ऊपर कलंक मुख्यमंत्री हुआ करते हैं, वहां उत्तर प्रदेश-तमिलनाडु-झारखंड जैसे विकास के मोहताज, दर-दर की ठोकर खानेवाले राज्य दिखाई देते हैं। सवाल यह भी है कि किसी शासनाध्यक्ष को उसकी निजी अमीरी के आधार पर उमी-पराक्रमी माना जाए या फिर उसके शासन काल में दुर्गति की दशा भोगते प्रदेश के आईने में उसे फिसड्डी और दरिद्र कहा जाए! ये वही नेता या फिर नेता के नाम पर ...... है जिसने , आपको याद ही होगा कि कुछ महीने पहले जिसके पास दांतेवाडा के शहीदों को देने के लिए पैसे नहीं थे कृपालु महाराज के भंडारे में मामूली खैरात पाने की भगदड़ में मरे लोगों को मुआवजा देने के लिए पैसे न होने की बात मुख्यमंत्री ने वैसे ही सार्वजनिक की थी, जैसे अब अपनी सम्पत्ति की घोषणा की है।

Friday, May 21, 2010

Thursday, May 13, 2010

माया के 3 साल

अाज से तीन साल पहले सारे अनुमानों, आंकड़ों और विश्लेषणों को बलाए ताक कर सवर्जन के एजेंडे को लेकर बसपा ने जिस चमक-दमक के साथ सरकार बनाई, उससे लोगों की उम्मीदें थीं कि अब बहुजन से सर्वजन तक खुशहाली का सावन बरसेगा और विकास की फसल लहलहाएगी। लोगों को यह भी लगा कि यह सरकार पूर्ववर्ती सरकारों से भिन्न होगी। सरकार जब अपनी नीतियों, कार्यक्रमों, प्राथमिकताओं, नियोजनों पर चलने लगी तो नौकरशाहों, चापलूस प्रवृत्ति के लोगों की गिरफ्त में फंसती चली गई। समाज के दबे कुचले शोषित वंचित और उपेक्षित तथा समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति पर होठों पर मुस्कान लाने का संकल्प किताबी साबित हुआ। उसके दो वक्त की रोटी, स्वास्थ्य, सुरक्षा और शिक्षा पाने का मकसद आज भी एक ख्वाब से ज्यादा कुछ नहीं है।

ऐसे में किसी शायर की यह पंक्तियां प्रासंगिक लगती हैं -
"बहुत आगे बढ़े हैं काफिले वाले हकीकत है,
मगर मंजिल की जो दूरी पहले थी सो अब भी है"

पुष्टि होने लगी कि इस सरकार का लक्ष्य मात्र राजधानी लखनऊ को पत्थरों की मूर्तियों से पाट देना और विरोधी दलों के प्रति प्रतिशोध से काम करना तथा रोज-रोज अधिकारियों के तबादलों, दूसरे दलों के अपराधी और अराजक तत्वों को बसपा में शामिल करना भर रह गया है। उस पर बसपा का मासूमियत भरा हास्यास्पद यह बयान कि विपक्षी दलों ने आपराधिक तत्वों को बसपा में भेज दिया। सवाल यह उठता है कि क्या बसपा नेतृत्व सत्ता पाने के बाद इतना नादान हो गया कि उसका विवेक अच्छे और बुरे की पहचान करने तक की क्षमता खो बैठा।

राजनीतिक क्षेत्रों में प्रशासनिक निरंकुशता और भ्रष्टाचार बढ़ते अपराध का सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है।बल्कि एक ओर बढ़ती महंगाई, चोरबाजारी खा पदार्थो में मिलावट, दूसरी ओर बसपा नेतृत्व करोड़ों रुपयों का हार पहनकर मीडिया में अपनी तस्वीरे छपवाए। यह कृत्य आम जीवनोपयोगी चीजों को तरसती जनता के घावों पर नमक छिड़कने जैसा रहा है। पानी, बिजली, स्वास्थ्य और किसानों, मजदूरों व अन्य वर्गो की समस्याओं से जूझती जनता से बेपरवाह मायावती सरकार केन्द्र सरकार से बात-बात पर रार ठान रही है। अपनी छवि बचाने के लिए विरोधी दलों पर अनर्गल प्रलाप कर रही है। दलित शोषित उपेक्षित भी हैरान हैं कि इस सरकार में उन्हें मिला क्या? वे तो जहां के तहां, बल्कि और पीछे धकिया दिए गए। बसपा कांग्रेस की देखादेखी दलित प्रेम का ढोंग दिखा रही है मगर उनके विकास उत्थान के लिए कुछ नहीं कर रही है। उसकी स्थिति तो अब यही है कि -
‘परछाइयों के शहर में तन्हाइयां न पूछ
अपने शरीके गम में कोई अपने सिवा न था’

सवाल यह उठ रहे हैं कि किस बिना पर इस सरकार को सफल सरकार माना जाए। जहां बात-बात पर आम आदमी को इंसाफ के लिए सरकार के बजाए जनहित याचिकाओं के जरिए न्यायालय की शरण में जाना पड़े। सरकार असंवेदनशीलता से चल रही है फिर भी सरकार का दावा कि सर्वजन की सरकार जनहित में कार्य कर रही है। उसका यह दावा थोथा एवं बड़बोलापन नहीं तो और क्या है।

कांग्रेस हो या भाजपा यह सब अपना मुंह बड़ी बेबाकी से तभी खोलते हैं जब उनके कार्यकर्ता पर कोई सरकारी दबाव आता है। आज उत्तर प्रदेश में सपा को छोड़कर विपक्ष में ऐसा कोई दल नहीं है जो अपने बल पर 2012 में सरकार बनाने का दावा कर सके। बसपा सरकार की यही सफलता मानी जा रही है और निरंकुशता और मनमानी की वजह भी यही है। यह विडम्बना ही मानी जाएगी कि वर्तमान सरकार ने कई बार राज्यपाल तक से टकराने की कोशिश की है और जहां भी उसने अपना कोई अहित होने का खतरा देखा वहीं उसने तुरंत केंद्र सरकार की हां में हां मिलाने में देर नहीं की। इसमें कोई दो राय नहीं कि जैसी बसपा की कार्यशैली है उसमें वह सबसे बड़ा खतरा सिर्फ उत्तर में सपा से महसूस कर रही है।

Tuesday, May 11, 2010

मूर्तियों के बाद मायावती को चाहिए एक हेवली

मायावती का मूर्ति प्रेम तो जगजाहिर है ही बहन जी महलों की भी शौकीन हैं॥अपने महल की खातिर मायावती दूसरे के घरों पर भी कब्जा करने से गुरेज नहीं कर रहीं हैं। ये हम नहीं कह रहे हैं बल्कि हालात कुछ यही बयां कर रहे हैं | बादलपुर में जज की कोठी का मामल अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि बहन जी के सर एक और इल्जाम लग गया है। कहने वाले तो यही कह रहे हैं कि लखनऊ में एक पूर्व जज की कोठी पर बहन जी की तिरछी नजर है॥तभी तो रात के अंधेरे में एलडीए के गार्ड इस कोठी में कूद गए और जबरन अपना तंबू गाड़ने दरअसल ये कोठी जस्टिस नियामतुल्लाह ने बनवाई थी॥जस्टिस नियामतुल्लाह वहीं है॥जिन्हें पाकिस्तान बनने के बाद वहां के अटार्नी जनरल बनने का ऑफर मिला था।लेकिन उन्होंने हिंदुस्तान से बेंइंतहा मोहब्बत होने की खातिर जिन्ना से मिले इस ऑफर को ठुकरा दिया और इस कोठी में बाकी की जिंदगी गुजारना पंसद किया॥परिवार को वही यादें इस कोठी से जुडी है।

बात साफ है कि राजधानी के पॉश मॉल एवेन्यू इलाके में इस कोठी के ठीक बगल में मायावती का घर है और सामने बहुजन समाज पार्टी का दफ्तर अब ज्यादा क्या समझाना जहां मायावती का घर और दफ्तर हो वहां किसी और की कोठी भला कैसे रह सकती है॥लेकिन अपनी पुश्तैनी कोठी को बचाने की खातिर अब्दुल्लाह परिवार की पत्रकार बहु मैदान में डटी है

परिवार वालों का आरोप है कि राज्य में कई सरकारें आई और गई॥ लेकिन हालात ऐसे नहीं थे॥ बहन जी के राज में जीना मुश्किल हो गया है॥जिस पर लोगों की हिफाजत का जिम्मा है॥जब वहीं लोगों के सिर का छत छीनने लगे तो ऐसे में आम आदमी किससे फरियाद करे!

रात के अंधेरे में लखनऊ डेवलपमेंट ऑथारटी ने चोरों की तरह॥ सुरक्षाकर्मियों को जस्टिस नियामतुल्ला की कोठी पर कब्जा करने की खातिर भेजा॥लेकिन पुलिस के मौके पर पहुचंने के बावजूद इस गैर-जिम्मेदाराना कार्रवाई के लिए एलडीए के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है

एलडीए के वही सुरक्षाकर्मी हैं॥ जो देर रात मॉल एवेन्यू में रिटायर जज नियामतुल्लाह की कोठी में दीवार कूदकर दाखिल हो गए थे हलांकि मीडिया और पुलिस के मौके पर पहुंचने के बाद ये सभी वहां से निकल भागे॥ लेकिन मीडिया और पुलिस के जाते ही ये सुरक्षाककर्मी फिर से कोठी में घुस गए मगर मीडिया वालों के पहुंच जाने से जब इनकी जान पर बन आई तो अब ये एलडीए के वीसी यानी उपाध्यक्ष मुकेश मेश्राम का नाम लेने से भी नहीं हिचकिचा रहे थे।

Tuesday, May 4, 2010

राजनीति की नूरा कुश्ती में जनता को पटखनी

मंहगाई समेत कई मुद्दों पर संसद मे लाया जाने वाला कट ऑफ मोशन देश की राजनीति और राजनीतिकि दलों के चेहरो को बेनक़ाब करने का सबसे बेहतरीन सबूत बन कर रह गया है। अपनी परेशानियों और सत्ता पक्ष की मनामानी का विरोध करने के लिए जनता विपक्ष से ही आस लगाती है। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी साफ हो गया है कि भ्रष्टाचार हो या मंहगाई हर मामले में सभी राजनीतिक दल एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।

सियासी पंडितो की राय में मधु कोड़ा हो या चारा घोटाला, पडित सुखराम हो या बोफोर्स, घोटाले सामने तो आए लेकिन उनके नतीजे दबा दिये जाते हैं। बल्कि कुछ लोगो का तो यहां तक कहना है कि एक दूसरे के घोटालों और जाच ऐंजेसियों के दम पर सभी राजनीतिक दल एक दूसरे से समझौते से लेकर ब्लैक मेंलिग तक का खेल खेलते हैं। इसका सबूत एक बार फिर दिल्ली और लखनऊ के बीच खेली गई सियासी नूरा कुश्ती को देखने से मिला। बिन हवा के गुब्बारे की तरह हो चुके विपक्ष ने सरकार को संसद में घेरने के लिए गुब्बारे में हवा भी भरी और तैयारी भी ज़ोर शोर से की तो थी। मगर लखनऊ में माया मेम साब ने पूरे विपक्ष के गुब्बारे में इतने छेद कर दिये कि गिनती भी मुश्किल हो गई।

माया मेम साब ने सरकार के विरोध से इंकार कर दिया। हो सकता है कि मैडम सरकार गिराने या दोबारा चुनाव को देश हित में ठीक ना मानती हो। और ये भी हो सकता है कि मुद्दे को मुलायम और लालू के अलावा बीजेपी की झोली में ना जाने देने की नीयत से माया मेम साब ने सरकार को अभयदान देने की ठान ली हो।

लेकिन इस सबके बीच ये चर्चाएं बहुत ही अहम हैं कि केद्र की काग्रेस सरकार ने मैडम के खिलाफ सीबीआई को एक बार फिर टूल की तरह इस्तेमाल किया है। यानि आय से अधिक सम्पत्ति मामले के अलावा कुछ और घोटालों के मामलों में काग्रेस ने माया मेम साब को मदद करने का गुपचुप समझौता कर लिया है। इतना ही नहीं चर्चा तो ये भी है कि इन सभी मामलों को दबाने के अलावा उनके खिलाफ अपील तक ना करने का वादा काग्रेस ने मेम साब से कर लिया है।
देश और जनता के साथ इससे ज़्यादा शर्मनाक मज़ाक़ हो ही नही सकता।
भले ही मायावती के हर क़दम का विरोध करके उत्तर प्रदेश की जनता के लिए घड़ियाली आंसू बहाने वाले राहुल के बारे मे राजनीतिक हल्कों में कहा जा रहा है कि ज़मीन से तीन फुट ऊपर चलने से बदलाव नामुमकिन है। साथ ही राज्य की दुर्दशा के लिए केंद्र को कोसने वाली माया मेम साब भी जनता के साथ क्या कर रही हैं अब के सामने आ चुका है।

पिछले 63 साल से देश के साथ काग्रेस क्या कर रही है इसकी बानगी भर है ये ताज़ा मामला। लोगों का आरोप है कि सत्ता के लालच में काग्रेस किसी भी हद तक जा सकती है। देश के लिये सबसे खतरनाक दीमक बन चुके किसी भी भ्रष्टाचार को किसी भी रूप में पनाह दने के आरोपो के बीच काग्रेस जनता की जवाबदही से कैसे बचेगी ये उसके मैनेजर ही जाने।

लेकिन ये कहां तक उचित है कि बाबा साहब और काशीराम के मार्ग दर्शन से मान सम्मान की लड़ाई लड़ रहे कमज़ोर तबक़े के नाम पर बनी सरकार के नुमाइंदे अपने स्वार्थों के लिए उसी काग्रेस के सामने घुटने टेक दें जिसका विरोध ही उसकी राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा रहा हो। और फिर मुलायम लालू शरद और आड़वाणी समेत सभी नेताओं के चरत्रि को देख कर यही लगता है कि जनता जाए भाड़ में सत्ता और स्वार्थों के लिए हर समझौता जायज है.

Saturday, May 1, 2010

सीबीआई और महंगाई।

केंद्र की काग्रेसी सरकार के पास दो बड़े अचूक हथियार हैं। एक का नाम है सीबीआई और दूसरा है महंगाई। वह सीबीआई के जरिए विरोधियों को समर्थक बनाती है और महंगाई के जरिए समर्थक उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाती है। काग्रेस, महंगाई और सीबीआई तीनों सगी बहने हैं।

Wednesday, April 28, 2010

क्या बसपा केन्द्र की यूपीए सरकार के लिए संकटमोचक बनेंगी?

महंगाई के मुद्दे पर सम्पूर्ण विपक्ष के कटौती प्रस्ताव के मद्देनजर कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए बसपा की शरण में है। बसपा और कांग्रेस में एक गुप्त समझौता हुआ है। इसके संकेत बसपा सुप्रीमो मायावती को आय से अधिक सम्पत्ति मामले में सीबीआई के राहत देने से मिले रहे हैं। कांग्रेसी सशंकित हैं। लोकसभा में बजट सत्र में सम्पूर्ण विपक्ष ने केन्द्र की यूपीए सरकार को कई मुद्दे पर घेरने के लिए एकजुट है। विपक्ष कटौती प्रस्ताव लाने जा रहा है। सभी राजनीतिक दलों ने इसकी तगड़ी रणनीति तैयार की है। विपक्ष के कटौती प्रस्ताव पर बसपा अहम भूमिका निभा सकती है।

बैसाखी पर टिकी यूपीए सरकार ने विपक्ष के कटौती प्रस्ताव से निपटने के लिए बसपा पर डोरे डालने शुरू कर दिए हैं।

इसकी सबसे बड़ी मिसाल सीबीआई ने बसपा सुप्रीमो मायावती को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में राहत देने की घोषणा से मिलती है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि केन्द्र की यूपीए सरकार के सामने सम्पूर्ण विपक्ष की एकजुटता ने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। इस संकट से निपटने के लिए कांग्रेस और बसपा के बीच एक गुप्त समझौता हुआ है। इसी समझौते के तहत बसपा को कई मामलों में राहत दी गई है

। पहला कांग्रेस यूपी में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करेगी।

दूसरा बसपा को केन्द्र सरकार सहयोग करेगी।

तीसरा कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष को हटाया जाए।

इसके एवज में बसपा विपक्ष के कटौती प्रस्ताव पर कांग्रेस का साथ देगी। इस पर दोनों दलों के बीच सहमति हो गई है। मालूम हो कि चौदहवीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार के मुद्दे पर बसपा विपक्ष के साथ थी। जबकि सपा कांग्रेस के साथ। लेकिन इस बार तस्वीर बदल गई है। सपा कांग्रेस का सबसे ज्यादा विरोध कर रही है। हाल ही में महिला आरक्षण विधेयक पर राज्यसभा में हुई वोटिंग पर सदन से वाकआउट कर बसपा ने कांग्रेस का साथ दिया था। ।
बहनजी को सीबीआई ने आय से अधिक मामले में राहत से गुप्त समझौते के तहत दी है।

Tuesday, April 20, 2010

नेता और नेतृत्व

नेता यानी अप्राकृतिक, अमर्यादित, अपरूप, अपचेष्टा के पर्यावरण के बावजूद उनके समानांतर ही शिव-सत्ता का अवगाहन ।
नेता यानी समग्र सौदर्य का प्रकाशन ।
नेतृत्व का मतलब रचना है । स्वयं को रचना । युग को रचना । समय को रचना । काल को रचना । भूत और वर्तमान की पुनर्ररचना और भविष्य की संरचना । दृष्ट को रचना, अदृश्ट की भी रचना ।
नेतृत्व समानांतर संसार की सर्जना है । नेतृत्व ईश्वर के बाद सर्वोच्च सत्ता को साधने वाली कला है ।
नेतृत्व वही जिसके प्रत्येक शब्द में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की ज्योत्सना झरती हो । वहाँ डूब-डूब जाने के लिए मन बरबस खींचा चला आता रहे ।
नेतृत्व सच्चा होगा तो वह क्षीणकाय न होगा, दीर्घायु होगा । वहाँ वाद न होगा, विवाद न होगा, अजस्त्र संवाद होगा ।
फलतः उसमें मनुष्य जाति के लिए अकूत रोशनी होगी । एक ऐसा पनघट होगा जहाँ हर कोई अपनी प्यास बुझा सके । एक सघन-सुगंधित तरूबर होगा जहाँ हर कोई श्रांत श्लथ श्रमजल जूड़ा सकेगा । एक ऐसा निर्मल दरपन होगा जहाँ वह अपने चेहरे के हर रंग को भाँप सकेगा ।
एक ईमानदार नेतृत्व सामयिकता के जाल में उलझना नहीं चाहता । सामयिकता तत्क्षण का अल्प सत्य है । वह शाश्वत नहीं हुआ करती ।
ईमानदार नेता सदैव शाश्वत की ओर उन्मुख होना चाहता है । इसलिए वह व्यक्ति, जाति, धर्म, देश, काल, परिवेश को लांघने के सामर्थ्य से परिपूर्ण होता है । वह अपनी वास्तविकता में व्यक्ति नहीं अपितु व्यक्तित्व की लघुता से प्रभुता की ओर संकेत है ।
नेतृत्व तटस्थ-वृत्ति है । ऐसी तटस्थता जहाँ मंगलकामना का अनवरत् राग गूँजता रहता है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे भवन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राण पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग्भवेत् ।

Wednesday, April 7, 2010

चुनौती शिक्षा का अधिकार कानून की

एक अप्रैल से भारत में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो गया। प्रधानमंत्री के शब्दों में भारत में नई क्रांति की शुरुआत हो गई। किंतु कानून लागू होने के साथ ही भारत के 18 करोड़ की आबादी वाले राज्य के मुखिया ने घोषित कर दिया कि जब तक इस व्यवस्था का पूरा वित्ताीय भार भारत सरकार वहन नहीं करेगी, तब तक इसे लागू करना असंभव है। उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री को इस तरह की घोषणाएं करने की जल्दी रहती है। सच्चाई यह है कि इस कानून से देश का भाग्य बदल सकता है। खासतौर से उन वर्गो का जिनका प्रतिनिधित्व करने का वह दावा करती हैं। यह दुखद है कि जिस राज्य ने आजादी के बाद इस देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री दिए, आज वह देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में है। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या का अनुपात देश में सर्वाधिक उत्तार प्रदेश में है। शिक्षा के औसत में उत्तार प्रदेश काफी पीछे है।इनके मुताबिक, देश की 65 फीसदी साक्षरता दर के मुकाबले उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर 57 फीसदी है। पूरे देश में 92 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पाते, उसमें से अकेले 30 लाख उत्तर प्रदेश से हैं। उत्तर प्रदेश के लिए इस योजना में 18,000 करोड़ रुपये खर्च आयेगा, जिसमें से 10,000 करोड़ केंद्र देगा। सिर्फ 8,000 करोड़ रुपये राज्य सरकार जुटा पाने में असमर्थता जता रही है। इसके विपरीत उत्तरप्रदेश सरकार करीब 4,500 करोड़ रुपये सिर्फ मूर्तियों और स्मारकों पर खर्च कर रही है।

शिक्षा और चिकित्सकीय सुविधा के क्षेत्र में झारखंड, बिहार की तरह उत्तार प्रदेश भी निचले पायदान पर है। उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री की देखादेखी देश के अन्य पिछड़े राज्य भी शिक्षा के अधिकार पर होने वाले खर्च से हाथ खड़े कर सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने शिक्षा को राज्य सूची का विषय बनाया था।जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में शिक्षा में सुधार के लिए डीएस कोठारी कमीशन का गठन किया गया था। इस आयोग ने पड़ोस में ही विद्यालय खोलने और प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य, नि:शुल्क व मातृभाषा में करने की अनुसंशा की। आयोग की अनुसंशाओं को लागू करने के बजाय बड़े पैमाने पर फैंसी स्कूल खुल गए, जिनमें प्रथम कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया गया। भारत सरकार के सैम पेत्रोदा ज्ञान कमीशन ने दर्जा एक से ही अंग्रेजी की अनिवार्यता पर जोर दिया, जिस पर खीझ कर तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह ने इसे अज्ञान कमीशन की संज्ञा दी। इसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा। वह न केवल शास्त्री भवन से बाहर हुए, बल्कि नेहरू परिवार से संबंध रखने वाले जितने भी ट्रस्ट हैं, सभी से चलते कर दिए गए। खानदानी स्वामीभक्ति की दुहाई भी उनके काम न आई। प्रारंभिक शिक्षा को मातृभाषा से दूर रखने में फैंसी स्कूलों का बड़ा योगदान है। इन स्कूलों में नर्सरी में दाखिले को फीस ही लाखों में है। देश के बड़े लोगों में पहले तो अपने बच्चों को इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश कराने की चिंता रहती थी, अब उनमें बच्चे को अच्छे स्कूल में भर्ती कराने की भी होड़ लगी है।

सरकार ने कहा है कि 25 फीसदी गरीब बच्चों का दाखिला नि:शुल्क और अनिवार्य होगा। सरकार अपने इस वचन को कभी पूरा नहीं कर पाएगी। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि पहली कक्षा में दाखिला लेने वाले बच्चों में से आधे आठवीं कक्षा तक स्कूल छोड़कर चले जाते हैं। 2008-09 में पूरे देश में प्राइमरी पढ़ाई में एक करोड़ 34 लाख बच्चे दाखिल हुए, किंतु दर्जा छह से आठ के बीच इनमें से कुल 53 लाख ही पहुंचे। दर्जा पांच के बाद एक-तिहाई और आठ के बाद आधे बच्चे स्कूल से बाहर हो जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा की दोहरी चुनौती सभी बच्चों को स्कूल भेजना और कम से कम दसवीं तक उन्हें स्कूल से पलायन न करने देना है। क्या देश में राज्य सरकारों ने इतने स्कूल बनाए हैं कि उनमें सभी बच्चों समाहित हो सकें? क्या बने हुए सभी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं? इस कानून की मंशा को पूरा करने के लिए स्थानीय निकायों और स्वयंसेवी संगठनों को कठिन परिश्रम करना होगा। गरीब बच्चों के लिए केवल फीस की माफी नहीं, बल्कि दोपहर का भोजन, वस्त्र, पुस्तक के लिए साधन देना भी अनिवार्य है। ऐसी लड़कियों के लिए, जो घरेलू काम के बोझ से स्कूल नहीं जातीं गांव प्रधान और सभासदों को घरेलू विद्यालय संचालित करने चाहिए, जहां दिन में तीन घंटे की पढ़ाई हो और उन्हें प्राथमिक जानकारी दी जाए। इस अल्पकालिक शिक्षा में आने वाली बच्चियों के लिए कुछ आकर्षक योजनाएं हों।

इस घोषणा को महज खानापूर्ति के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत को ज्ञानवान बनाने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसे भारतीय भाषाओं को समाप्त कर अंग्रेजी थोपने के साधन के रूप में इस्तेमाल न किया जाए। भूखा अभिभावक, भूखा बच्चा, भूखा अध्यापक और जर्जर स्कूल क्या शिक्षा की चुनौती को कबूल कर सकेंगे। संभ्रांत लोगों को स्कूल खोलने से रोक कर सरकारी संस्थाओं को गोद लेने को कहा जाए क्योंकि शिक्षा समाज की सबसे बड़ी सेवा है, उद्योग अथवा व्यवसाय की तरह कमाई का साधन नहीं है।

Tuesday, March 30, 2010

गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज

जहां संस्कार में अतिथि देवो भव शामिल हो, वहां कांग्रेस और कांग्रेसी सरकारें अमिताभ बच्च्न और उनके परिवार के साथ जिस तरह का क्षुद्र व्यवहार कर रही हैं वह शर्मिंदा करने वाला है। क्या कांग्रेसियों का धर्म – कर्म सिर्फ एक परिवार को खुश रखना भर रह गया है? येसा लगता है देश कांग्रेस का हो गया है और कांग्रेस निजी तौर पर सोनिया गांधी की। व्यक्तिगत पसंद – नापसंद सत्ता दल का सरकारी एजेंडा नहीं हो सकता। इमरजेंसी का दौर बहुतों को अभी याद होगा जब कांग्रेस के चंद चाटुकारों ने इंदिरा इज इंडिया का नारा देकर इंदिरा गांधी जैसी तेजवान, शक्तिशाली व दूरदर्शी नेता का बंटाधार करके रख दिया था। सोनिया को येसी चाटुकारिता से बचना चाहिए।

अमिताभ का कुसूर क्या है? मुंबई में नवनिर्मित सी-लिंक के उद्घाटन समारोह में वह खुद ब खुद नहीं गए, एनसीपी के बुलावे पर अतिथि बने थे। उस समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण भी पहुंचे। समारोह का बकायदा सरकारी निमंत्रण पत्र छपा और बंटा था। यह बात दीगर है कि अपनी सफाई में चव्हाण ने कहा कि उन्हें अगर पता होता कि अमिताभ आ रहे हैं वह समारोह में नहीं जाते। यह एक अलग मुद्दा हो सकता है कि जिस समारोह में मुख्यमंत्री जा रहे हों उसमे कौन मुख्य अतिथि है कैसे पता नहीं चला, वह भी तब जबकि आयोजन सहयोगी दल एनसीपी का था।

गठबंधन की सरकार क्या इसी तरह काम करती हैं? यह तो वही हुआ कि गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज । एनसीपी के साथ सत्ता की मलाई खाने में कांग्रेस को एतराज नहीं लेकिन उसके मान्य अतिथि (अमिताभ) मंजूर नहीं। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद एनसीपी इसलिए प्रिय है क्योंकि उसके बिना कांग्रेस को महाराष्ट्र की सत्ता से दूर रहना पड़ेगा। मीठा-मीठा गप्प वाली ही बात है, वरना बात ज्यादा पुरानी नहीं, शरद पवार ने कांग्रेस क्यों छोड़ी या तोड़ी थी? सोनिया के विदेशी मूल के सवाल पर किसने विरोध का झंडा उठाया था? माना राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती, मौका और लाभ के प्रतिशत के अनुसार रिश्ते बनते व बिगड़ते हैं।

आज महंगाई के कारण पूरे देश में संप्रग सरकार की छीछालेदर हो रही है फिर भी पवार प्रेम सत्ता की अनिवार्य शर्त बना हुआ है। एनसीपी की देखिए, उसी ने अमिताभ को सी-लिंक के समारोह में निमंत्रित किया और विवाद होने पर एक सामान्य सा बयान (व्यर्थ का विवाद) देकर वह चुप बैठ गई। कम से कम उसे तो मुंबतोड़ जवाब देना था, हां हमने बुलाया था और हमारे अतिथि को अपमानित करने का कांग्रेस कोई हक नहीं रखती। अशोक चव्हाण तो कुरसी को लेकर इतने सहमे कि मराठी विद्वानों के पुणे वाले समारोह में एक दिन पहले ही हाजिरी लगाने पहुंच गए ताकि फिर बिग-बी के साथ मंच साझा करने का लांछन न सहना पड़े।


शीला दीक्षित को क्या हो गया? दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री हैं और यादाश्त इतनी कमजोर कि १० मार्च का समारोह भी भूल गईं जिसमें वह छोटे बच्चन अभिषेक के साथ मंच पर बैठी थीं। इसी समारोह में उन्होंने अभिषेक को अर्थ आवर का ब्रांड अंबेसडर घोषित किया था और शनिवार की रात जब इंडिया गेट पर अर्थ आवर मनाया गया तो अभिषेक को वहां आने से रोक दिया गया। वीडियो से उनके फुटेज हटवा दिए गए, अति उत्साह में या शीला दीक्षित को खुश करने के लिए आयोजकों ने वे पोस्टर तक फाड़ डाले जिनमें अभिषेक थे। राजनीतिक मतभेद और विरोध तो समझ में आता है लेकिन सरकार इसका क्या तर्क देगी?

पता नहीं १० मार्च के फोटो पर गांधी परिवार की नजर पड़ी थी या नहीं जिसमें दिल्ली की पर्यावरण प्रेमी मुख्यमंत्री प्रफुल्लित होकर अभिषेक के साथ मंच पर विराजमान थीं। अब वह इतना कहकर हाथ झाड़ लेती हैं कि समारोह के इंतजाम की जानकारी उन्हें नहीं। क्या बुढ़ापे में सचमुच यादाश्त कमजोर पड़ने लगती है?


राजनीति के रंग देखें, अमर सिंह एक समय कांग्रेस से अधिक सोनिया के आलोचक रहे। एटमी डील पर जब पहली संप्रग सरकार खतरे में पड़ी तो वही मुलायम को कांग्रेस के करीब लाने का सूत्रधार बने। अमर सिंह जो अमिताभ के सबसे नजदीकी राजनीतिक व पारिवारिक मित्र थे और संबंध बड़े-छोटे भाई का था, आज नई राजनीतिक जमीन की तलाश में सुबह-शाम सोनिया – राहुल चालीसा का पाठ कर रहे हैं और इस मुहिम में बच्चन परिवार कहीं पीछे छूट गया। *

क्या अमिताभ का पक्ष साधने पर कांग्रेस की राह उनके लिए कठिन हो सकती है? भाजपा ने जरूर पक्ष लिया है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भी समर्थन में आवाज उठाई है जिनका उत्तर भारतीयों पर हमले के मुद्दे पर अमिताभ से मतभेद हो गया था। यह जानते हुए भी कि कांग्रेस नहीं सुनेगी, भारतीय ओलंपिक संघ के उपाध्यक्ष वरिष्ठ विजय मल्होत्रा ने बिग-बी को राष्ट्रकुल खेलों का ब्रांड अंबेसडर बनाने की मांग कर डाली है।


महत्वपूर्ण यह कि कांग्रेसी सरकारों द्वारा बच्चन परिवार का अघोषित बहिष्कार के लगातार प्रयासों के बीच हाईकमान सोनिया गांधी चुप हैं। पारिवारिक मतभेद (अगर कोई हो) से ऊपर उठकर कम से कम उन्हें इतना जरूर कहना चाहिए जो हो रहा वह ठीक नहीं। आखिर यह वही परिवार है जिसे राजनीति में उतारने का पहला श्रेय स्व. राजीव गांधी को जाता है.

Saturday, March 20, 2010

मायावती का मानसिक दिवालियापन

उत्तर प्रदेश में दलित भले ही भूखे मर रहा हो, लेकिन खुद को दलितों का मसीहा बताने वाली मायावती एक हजार रुपये के नोटों की माला पहन रही हैं। प्रदेश में दलितों को रहने के लिए ठीक ढंग से झोपड़े भी नसीब नहीं, लेकिन मायावती सरकार ने हजारों करोड़ रुपये बुतों पर पानी की तरह बहा दिए। माया का मनोविज्ञान उस वक्त और भी ज्यादा जटिल दिखाई देता है, जब वह गहनों से लदकर अपने जन्मदिन का केक काटती हैं। इतना ही नहीं, कुछ समय पहले तक तो उनके जन्मदिन पर खुलेआम वसूली भी की जाती थी।

मायावती का कहना है कि यह किस संविधान में लिखा है कि जीवित व्यक्ति की मूर्तिया नहीं लग सकतीं। मायावती जी, अपनी मूर्ति लगाना संवैधानिक तौर पर गलत नहीं है, लेकिन अगर बात नैतिकता या सामाजिक परंपराओं की हो तो इस पर सवाल उठना लाजिमी है। आप किसी पार्क या चौराहे पर जीते जी अपने बुत लगवा सकती हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या आप लोगों को इस बात के लिए मजबूर कर सकती हैं कि वे इन बुतों के प्रति श्रद्धा-भाव रखें। दरअसल, किसी की भी मूर्ति या बुतों के प्रति आम लोगों के मन में कोई भावना तभी जन्म लेती है, जब उसने अपने कर्मो से जनमानस के सामने एक मिसाल पेश की हो।

अब आते है आंकड़ो पर, संयुक्त राष्ट्र की विश्व सामाजिक स्थिति 2010 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दलितों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। प्रति हजार दलित बच्चों में 83 शिशु जन्म लेते ही मर जाते हैं और 119 बच्चों की मौत पाच वर्ष के भीतर ही हो जाती है। दलित आवश्यक वस्तुओं के उपभोग खर्च में सामान्य लोगों के उपभोग खर्च से 42 फीसदी पीछे हैं। उत्तर प्रदेश में हालात और भी ज्यादा बदतर हैं। दलित राजनीति के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले मायावती जैसे नेता दरअसल समाज के इस तबके को वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश में दलित या गरीब तबके के उत्थान के लिए मायावती सरकार की तरफ से कोई बड़ी पहल नहीं की गई। दरअसल, एक डर यह भी है कि अगर दबे-कुचले लोग पूरी तरह जागरूक हो गए, तब माया की असली माया से वे भी पूरी तरह वाकिफ हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश में दलित महिला का बलात्कार होता है तो अपराधी को पकड़ने के बजाय पीड़ित महिला को मुआवजा बाटा जाता है। प्रदेश में कई आंबेडकर गाव घोषित कर दिए गए हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के चलते इन गावों की बदहाली किसी से छिपी नहीं है।
राजधानी लखनऊ में बड़े-बड़े पार्को पर करोड़ों रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन आज भी उत्तर प्रदेश के कई गाव या कस्बों में पुरुष या महिलाओं को शौच के लिए बाहर ही जाना पड़ता है। समाज के दलित और कमजोर तबके को भी अब यह एहसास होने लगा है कि वोट बैंक के नाम पर दलित राजनीति का झडा उठाने वाले लोगों ने भी उनकी तरक्की या विकास के लिए कुछ नहीं किया।
काशीराम के जन्मदिन और बहुजन समाज पार्टी के 25 साल पूरे होने पर मायावती ने लखनऊ में महारैली का आयोजन कर डाला, जिसमें हर राजनीतिक पार्टी की रैलियों की तरह भीड़ जुटाने के लिए पूरे तंत्र को लगा दिया गया था। वातानुकूलित बसों और रेलगाड़ियों से लोगों को प्रदेश की राजधानी लखनऊ लेकर आया गया। अब एक बार बात फिर माया के मनोविज्ञान की। खिसकता जनाधार और काठ की हाडी बन चुके दलित वोट बैंक ने मायवती के मनोविज्ञान को झकझोर दिया है और अब लोगों की भीड़ जुटाकर वह खुद को तसल्ली देने की कोशिश में लगी हैं कि प्रदेश की जनता उनके साथ है। मायावती का यही मनोविज्ञान उनसे ऐसा कुछ कराता है, जो उनके इर्द-गिर्द मौजूद लोगों को भी सहज और स्वाभाविक नहीं लगता, लेकिन सबसे बड़ा डर यही कि बिल्ली के गले में घटी कौन बाधे और अगर ऐसा कुछ करने से ही सत्ता का सुख नसीब हो रहा हो तो फिर इस पर सवाल क्यों उठाए जाएं? आचार्य रजनीश की एक किताब में यह जिक्र था कि अगर बाजार में कोई शख्स अकड़कर चल रहा हो और वह आप से आकर टकरा जाए तो आप उस पर नाराज मत होना, क्योंकि वह शख्स समाज और परिवार में उपेक्षित है और वह लोगों का ध्यान खींचने के लिए इस तरह की हरकतें कर रहा है। ऐसा व्यक्ति गुस्से का नहीं, दया का पात्र है। समाज-सुधार और दलित उत्थान की बात करने वाले ऐसे नेताओं की कमी नहीं, जो लोगों का ध्यान खींचने के लिए कुछ ऐसा ही करते नजर आते हैं।

Wednesday, March 17, 2010





कौन सा ऐसा इंसान होगा जिसकी आँखे में ये दृश्य देखकर पानी न उतर आये,सिवाय उसके जिसके आँखों का पानी सूख चूका हो या जो आज तक माँ बना इ का या फिर कुपोषण का दर्द न जानते हो, ये दृश्य है उस प्रदेश की बदहाली का जिस प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री करोडो की माला पहनकर इठलाती है, जो भारत की सबसे ज्यादा कमानेवाली महिला बन चुकी है और जिसके चमचे और वफादार नस्ल की सरकारी मशीनरी दो दिन के अपने व्यक्तिगत, निजी आयोजन पर जनता के 250 करोड़ फूक डालते है,

ये दृश्य है उस प्रदेश का जहा की मुख्यमंत्री , सदियों से दबे कुचले , दलित और कुपोषित का नाम लेकर सत्ता में आयी और आज उन्ही का खून चूस कर उन्हे इस हालत पंहुचा दिया..ये दो दृश्य दिखाते है की आज क्या हालत कर दी है एक महिला की मुर्खता और उसके चाटुकारों की दौलत की हवस ने,

ये सिर्फ एक कुपोषित बच्चा नहीं है, बल्कि एक कुपोषित लोकतंत्र है, जो ऐसी जाहिल, निकम्मी और जोंक सरकार को सत्ता में बैठा देती है ; जो जवाब मांगने पर लाठिय और गोलिया चलवाती है, जिसके लिए मुर्तिया जिन्दा इंसानों से ज्यादा महत्वपूर्ण है और जो अपने निचे से फिसलती हुई सत्ता को देख रही है

मायावती की बहुप्रचारित राष्ट्रीय रैली पूरी तरह से फ्लाप हो गयी है. मायावती के समर्थकों ने दावा किया था कि रैली में 20 से 25 लाख लोग आ सकते हैं लेकिन रैली में पांच से छह लाख लोग ही आ सके. इसमें भी उत्तर प्रदेश से ज्यादा लोग महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से आये. खबर है कि मायावती ने इस असफलता का संज्ञान लेते हुए समीक्षा करने का फैसला किया है रैली के आयोजन पर ही 200 से 250 करोड़ रूपये खर्च किये गये. रमाबाई अंबेडकर पार्क में आयोजन स्थल पर किये गये खर्च के अलावा परिवहन और प्रचार पर भी जमकर खर्च किया गया. मायावती प्रशासन द्वारा रैली को सफल बनाने के लिए पूरे प्रदेश को पंगु बना दिया गया था. सारे रास्ते रमाबाई अंबेडकर पार्क की ओर ही मोड़ दिये गये थे लेकिन आनेवालों की उदासी ने मायावती को मायूस कर दिया होगा.

"मनी, मीडिया और माफिया से सावधान" कहे वाली मायावती से ये पूंछो की गले में पड़ा १००० के नोटों का हार क्या मणि नहीं है और पार्टी में कितने माफिया हैं | सूप बोले सूप बोले चलनी क्या बोले जिसमे ७२ छेद.


ये रैली का फ्लॉप होना सिर्फ रैली का फ्लॉप होना नहीं है, ये फ्लॉप होना है मायामुर्ती की महत्वाकान्छाओं के, उनके प्रधानमंत्री बना इ के सपने का, उसकी जनता की खून छोस कर रैली और जन्मदिन मानाने वाली नीतियों का.

ये फ्लॉप होना है उस सरकारी बेशर्मी, उस सरकारी गुंडा गर्दी का की केंद्र के पैसे से बनाये गए पूल का उद्घाटन एक गुंडा मंत्री कर देता है, जो अलीगढ में लड़ते मरते , हिन्दू मुस्लिमो को समझाने उनकी समस्या को दूर करने के बजाय अपने रैली में सरकारी मचिनारी को घुलाम बनाए का .. ये फ्लॉप होना है उस मानसिकता का जो वोटर्स को अपना मानसिक गुलाम समझ लेती है.

ये फ्लॉप होना है लोकतंत्र की हत्यारी सरकार का, ये फ्लॉप होना है नकली सोशल इंजिनीअरिंग का, और सबसे बड़ी और अच्छी बात ,ये फ्लॉप होना है उत्तर प्रदेश के दुर्भाग्य का.

Tuesday, March 2, 2010

तांडव हाथी और 'हाथी' की सवारी कर रहे नेताओं का

आखिरकार उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार ने मेरठ में हाथी के तांडव पर तुरंत कार्रवाई करते हुए निर्णय कर लिया कि अब भीड़-भाड़ वाली जगहों पर हाथी को ले जाना कानूनन जुर्म होगा. मायावती प्रशासन का यह फैसला मेरठ की उस घटना के बाद आया है जिसमें एक शादी के दौरान हाथी ने जमकर उत्पात मचाया था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि मतवाला हाथी जिन दो लोगों को िरश्ते में बांधने की बघाई देने आया था वे दोनों भी सत्ता के हाथी पर सवार हैं? उनके मद को कौन चूर करेगा?

'हाथी' की सवारी कर रहे दो नेताओं ने राजनीति के साथ ही आपस में रिश्तेदार बनने का फैसला लिया। 24 फरवरी को बसपा के सांसद कादिर राणा के बेटे और वरिष्ठ बसपा नेता मुनकाद अली की बेटी की शादी की रस्म मेरठ के एक बड़े रिसोर्ट में पूरी की जा रही थीं। हालांकि इस्लाम में शादी की रस्म इतनी छोटी होती है कि उसे पांच आदमियों के बीच मात्र आधा घंटे में ही निपटाया जा सकता है। लेकिन दोनों नेतओं ने इतना आडम्बर किया कि मेरठ में दो दिन तक अफरा-तफरी का माहौल रहा। शादी में इतने लोगों ने शिरकत की कि मेरठ-दिल्ली रोड पर यातायात रोक दिया गया। मीलों लम्बा जाम लगा। जाम में फंसे लोग त्राहि-त्राहि कर बैठे। लोगों ने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि आम आदमी की नुमाइन्दगी करने का दावा करने वाले नेता ही अपनी शान-ओ-शौकत दिखाने के लिए आम आदमी को परेशानी में डाल दें ?

क्या इन्हें यह नहीं पता कि जाम में फंसे लोगों को कितना कष्ट होता है ? बच्चे प्यास से बिलबिला जाते हैं। मरीज वक्त पर अपनी दवा नहीं ले सकता। शहर में आने के बाद दूर-दराज जाने वालों के लिए वाहन उपलब्ध नहीं हो पाता। किसी युवा का इंटरव्यू छूट जाता है। क्योंकि सत्तारुढ़ पार्टी के नेताओं के बच्चों की शादी थी इसलिए पूरा प्रशासन व्यवस्था में जुटा हुआ था। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी गनीमत थी। मुनकाद अली ने शादी की रस्म को भी चापलूसी का जरिया बना दिया। क्योंकि मायावती लखनउ में जगह-जगह हाथियों की मूर्तियां स्थापित कर रहीं हैं, शायद इसी से प्रेरणा लेकर मुनकाद अली ने 11 जीते-जागते हाथियों को ही शादी स्थल पर खड़ा करके चापलूसी की एक महान मिसाल पेश कर दी।

बात यहीं खत्म हो जाती तो फिर भी ठीक था। एक हाथी सुबह से भूखा था। हाथी को शायद या तो यह बुरा लगा कि सब इंसान तो लजीज खानों का मजा ले रहे हैं, लेकिन मुझ बेजुबान जानवर को सुबह से भूखा रखा हुआ है। और शायद यह बुरा लगा कि एक गरीब मुल्क के अमीर नेता कैसे शाही शादियों पर बेशुमार दौलत खर्च करके गरीबों के नमक पर छिड़क रहे हैं। शायद यह बुरा लगा हो कि 'सरकार' भी इन्हीं नेताओं की जी-हजूरी में लगी हुई है। तभी तो जैसे ही एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की गाड़ी हूटर बजाती हुई शादी स्थल पर आयी, हाथी के सब्र का बांध टूट गया। हाथी ऐसा बिफरा की उसने उत्पात मचाना शुरु कर दिया। कई दर्जन आलीशान गाड़ियों को अपने पैरों तले कुचल डाला। सूंड से उठाकर गाड़ियों को सड़क पर पटक दिया। चारों ओर अफरा तफरी मच गयी।

यह हाथी शायद मानवतावादी था, इसलिए उसने इंसानों को नुकसान नहीं पहुंचाया। हाथी अगले दिन तक काबू में नहीं आया। दिल्ली और लखनऊ से हाथी को काबू में करने के लिए विशेषज्ञ बुलाए गए, तब कहीं जाकर हाथी के उत्पात को रोका जा सका।

हादसे के बाद जिस तरह की शर्मनाक बातें हुईं, उन्हें सुन और देखकर पक्का यकीन हुआ कि नेताओं का नैतिक पतन ही नहीं हुआ है, बल्कि वे मुंह तक 'कीचड़' में धंस चुके हैं। इस कीचड़ में कादिर राणा और मुनकाद अली जैसे नेता इतने लिथड़ चुके हैं कि उनका चेहरा ही पहचान में नहीं आता। दावा वे आम आदमी की सेवा का करते हैं लेकिन उनके चेहरों के पीछे सामंती चेहरा छिपा है।

मुनकाद अली ने फरमाया कि 'मैंने तो हाथी को पागल नहीं किया है, जो इसके लिए मैं जिम्म्ेदारी लूं।' यह ठीक है मुनकाद ने हाथी को पागल नहीं किया, लेकिन उनसे यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि किस 'पागल' ने उनको हाथियों की नुमाईश लगाने की सलाह दी थी ? हाथियों को लाकर शादी की कौनसी रस्म अदा की जा रही थी ? अब क्योंकि मामला सत्तारुढ़ पार्टी के नेताओं का था, इसलिए मुनकाद अली को शासन-प्रशासन ने भी कुछ नहीं कहा।

और अब शुरुआत होती है शासन और प्रशासन के , इन दोनों महानुभाव नेताओं के और दलित और आम जनता के हित के नाम पर सत्ता माँ आयी माया सरकार के सबसे घृणित चेहरे की, जिस पर थूकने का दिल करता है..यहां हाथी के मालिक को ही पकड़कर जेल भेज दिया गया। थाने में जो एफआईआर लिखायी गयी है, उसमें इस बात का जिक्र नहीं है कि हाथी वहां क्यों आया था? किसने बुलाया था ? यहां भी गरीब मार ही पड़ी। यह उस सरकार की हरकतें हैं, जो अपने आप को 'दलित' की सरकार कहती है।

'दलित' सरकार के नेताओं ने सामंतों को भी पीछे छोड़ दिया है। सच तो यह है कि मेरठ में 24 और 25 फरवरी को जो कुछ हुआ, वह एक भूखे हाथी का तांडव नहीं, सत्ता के मद में चूर 'हाथी' का तांडव था। एक भूखे हाथी के तांडव से पूरा शासन-प्रशासन कांप गया था, लेकिन उस दिन को याद करिए, जब देश का 'भूखी जनता' रुपी हाथी तांडव मचाने निकलेगा। तब इन 'सामंती' नेताओं को उस 'हाथी' से कौन बचाएगा ?

Thursday, February 25, 2010

अभी तक आदमी बनकर तुम्हे जीना नहीं आया..........

खुशी हद से बढ़ी तो आ गए मुस्कान को आंसू
कहीं कोई लुटा तो आ गये ईमान को आंसू
चढ़ाकर लूट की संपत्ति तुमनें जीत माँगी तो
पुजारी मुस्कराया आ गये भगवान को आंसू ।

पराई पीर का प्याला तुम्हे पीना नहीं आया
मनुजता का फटा आंचल तुम्हे सीना नहीं आया
भले ही तुम फरिश्तों की तरह बातें करो लेकिन
अभी तक आदमी बनकर तुम्हे जीना नहीं आया।

तुम्हारे पास बल है बुद्धि है विद्वान भी हो तुम
इसे हम मान लेतें हैं बहुत धनवान भी हो तुम
विधाता वैभवों के तुम इसे भी मान लेते हम
मगर यह बात कैसे मान लें इंसान भी हो तुम।

लगा ली गले से नफरत मुहब्बत तक नहीं पहुंचे
बसाया झूठ को दिल में सदाकत तक नहीं पहुंचे
सितारों तक तुम्हारा यह सफर किस काम का जब तुम
अँधेरे में सिसकती आदमियत तक नहीं पहुंचे ।
( रचना - स्व.पंडित रूप नारायण त्रिपाठी जी )


अब दिल भर गया है इन बाबाओं से , माफ़ कीजियेगा ये वो बाबा नहीं जो दाढ़ी मूंछ वाले और अखाड़ो में रहने वाले होते है ये वो बाबा है जो संसद भवन में रहते है, देश के युबराज कहे जाते है, आम आदमी की झोपडी मेक्झाते है लेकिन आम आदमी, दलित बाकि दिन क्या खाता है या इस महंगाई में खली पेट सोता है, इसका ख्याल नहीं आता..
अब तो यही दिमाग में आत है की..

न हयात चाहिए न आफताब चाहिए,
आवाम को तसल्ली नहीं, जवाब चाहिए
जलती आँखे और भूखे पेट कह रह "अजित"
हिंदुस्तान को एक नया इन्कलाब चाहिए

Monday, February 22, 2010

नक्सलियों का विस्तार

अगर सरकार वाकई में नक्सली समस्या से निपटना चाहती है तो देश के गरीब चालीस करोड़ जनता के हितों को लेकर फैसला ले। नहीं तो नक्सली दिल्ली में भी आकर बैठ जाएंगे। लोगों का जीना हराम है। आमदनी है नहीं खर्चा काफी है। दाल और आटा ही लोगों को नहीं मिलेगा तो वे क्या करेगा। भीख मांगेगा या हथियार उठाएगा। देश में कारपोरेट को अमीर करने की जो नीति मनमोहन सिंह ने बनायी है, उससे देश में स्थिति और भयानक होगी। इस देश में गरीब को रोटी नहीं मिलती। दाल खरीदना जाता है तो कमाई से चार दाने दाल आता है। इलाज करवाने जाता है तो चार दवाई खरीदने के लिए जेब में पैसे नहीं है।सरकार ईमानदारी से गरीबों के हितों में काम करे, नक्सलियों का विस्तार खुद ही रुकेगा।

Tuesday, February 16, 2010

फिल्मी नर-पशु

आपने कभी देखा है, कि जापानी समारोह में सभी चीनी बोलें और जापानी भाषा की हंसी उड़ाएं? या फ्रांस के समारोह में अंग्रेजी बोली जाए और फ्रांसीसी भाषा की खिल्ली उड़ाई जाए? दुनिया का कोई देश अपनी भाषा की उस तरह खिल्ली नहीं उड़ाता जिस तरह भारत के फिल्मोदद्योग से जुड़े व्यक्तियों द्वारा उड़ाया जाता है।

पिछले दिनों हुए “स्टार स्क्रीन अवार्ड” में कुछ ऎसा ही नजार देखा जो किसी भी भारतीय का सिर शरम से झुकाने के लिए काफी था, सिवाय “हिन्दी फिल्मों” से जुड़े लोगों का।

मंच पर साजिद खान “प्रोफेसर परिमल” बन कर शुद्ध हिन्दी बोल रहे थे और उनके साथ खड़ी अभिनेत्री उनकी हिन्दी को कोस रही थीं, अंग्रेजी में। और उनके साथ ठहाके लगा रहे थे दर्शक के रूप में बैठे “हिन्दी” अभिनेता और अभिनेत्रियां।

शर्म की इंतिहा तब हुई जब गायिका श्रेया घोषाल अपना पुरस्कार लेने मंच पर आईं और हिंदी में धन्यवाद-भाषण दोहराने के आग्रह पर ऎसी कठिनाई से, ऎसे अटक-अटक कर दो पंक्तियां हिंदी में बोल गईं जैसे शुद्ध अंग्रेजों की औलाद हैं और हिंदी बोल कर भारतीयों पर एहसान कर रही हैं।

बचपन में राष्ट्रभक्ति की एक कविता पढ़ी थी कि जिसे अपने देश और राष्ट्रीयता पर अभिमान नहीं, वह इंसान नहीं, नर- पशु समान है।

उस फिल्म समारोह में ऎसे ही नरपशु भरे पड़े थे। न पढ़े, न लिखे, दिखावे की ज़िंदगी जीने वाले ये नर-पशु अन्य देशवासियों से अपनी कमतरी छिपाने के लिए विदेशी भाषा का आश्रय लेते हैं।

जरा कस कर एक जूता इनके सिर पर मारें तो चिल्ला पड़ेंगे अपनी मातृभाषा में।

Friday, February 12, 2010

महाराष्ट्र के नमूने नेता और अभिनेता

आज संजय निरुपम नाम के एक जमूरे को एनडीटीवी पर आँखे चढाते और चिल्लाते हुए देखा की आज शिवसेना के गुंडों से फिल्म देखने वालो को बचायेंगे..शाहरुख़ खान के घर से लेकर सारे सिनेमा हाल तक हजारो पुलिस वालो का पहरा लगा हुआ था..कुछ ऐसा ही कर्फ्यू राहुल बाबा के मुंबई प्रवास के दौरान था ..

लेकिन मै इसी नेता से पूछना चाहता हु (जो की कभी शिवसेना क फायरब्रांड नेता रह चूका है ) की ये तेजी, ये सरकशी ये लोमड़ी जैसी आँखे तब कहा छुपी पड़ी थी जा शिवसेना और मनसे के गुंडों से लेकर मुंबई पुलिस तक उत्तर भारतीयों का खून बहा रहे थे.

कहा छुपी पड़ी थी ये पुलिस, तब भी तो यही पुलिस थी और यही सरकार , क्यों नहीं बचाया जा सका उन बेगुनाहों को जो एक नौकरी पाकर परिवार क भला करने गए थे, जिनकी आँखों में विकास क सपना था, उन्हे मनसे के गुंडों ने पीट पीट कर मार डाला..

कहा था ये संजय निरुपम नाम का गुंडा जब हजारो खोमचे और पता नहीं कितनी टैक्सिया तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर दी गयी..
कहा था ये नेता जब नाशिक से पुणे तक उत्तर भारतीयों की उत्पीडन क एक दौर चला और किसी भी उत्तर भारतीय नेता ने चाहे वो निरुपम रहा हो, चाहे वो कृपाशंकर सिंह या चाहे और भी कोई , किसी ने आवाज नहीं उठाई..

आज मै शाबाशी देता हु सरकार को की सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किये गए लेकिन क्या इससे कांग्रेस अपने दमन क वो खून कभी साफ़ कर सकेगी..

Thursday, February 11, 2010

अपराध या सिस्टम के खिलाफ जंग!

उत्सव का आक्रोश देखकर लगा कि उत्सव में चेतना अभी मरी नहीं है। रही बात उत्सव के आक्रोशित होने की तो, ये सहजवृत्ति है। नारी शक्ति द्रौपदी के अपमान की ही तो बात थी। एक रजस्वला स्त्री जिसे दु:शासन ने वस्त्रहीन करके दुर्योधन की जांघ पर बिठाने का प्रयास मात्र किया और इतना बड़ा युद्ध महाभारत हो गया। जिसमें लाखों योद्धाओं का खून बह गया। आज सैकड़ों बालाएं रोज लूटी जाती हैं, लेकिन शक्ति पुत्रों में से किसी एक का भी खून नहीं खौलता। जैसे उसके रक्त का शीत ज्वर हो गया या उनकी चैतन्यता को काठ मार गया। क्या स्त्री शक्ति इसी तरह लूटी जाएगी और हम उसमें सहभागी बनेंगे? अथवा देखते रहेंगे? हो क्या गया है हमारे एहसासों को। कहां गया हमारा ईश्वरीय भाव। मेरी तो सोच यह है कि राष्ट्र को नारी शक्ति की महत्ता समझनी होगी। यह चेतना जब उत्सव जैसे युवाओं के अ‌र्न्त:मन को झकझोरती है तब राठौड़ जैसे लोगों के साथ तो इससे भी बुरा होना चाहिए।

Sunday, January 24, 2010

मेरा मन इन मूर्तियों को ढहाने का होता है।

गांव-समाज में एक देशी कहावत अकसर सुनने को मिल जाती है फलनवा बड़ा आदमी रहा। अपने जीते जी मरे के बादौ क इंतजाम कई गवा। काहे से कि केहु ओकरे करै वाला नहीं रहा। मायावती भी कुछ गांव-समाज के उसी बड़े आदमी जैसा बर्ताव कर रही हैं। लेकिन, मामला सिर्फ ये नहीं है कि मायावती ने किसी से प्रेम नहीं किया-शादी नहीं की तो, उनकी फिकर करने वाला भी कैसे होगा। दरअसल, ये मायावती तो, उन करोड़ों लोगों की उम्मीद थी जिन्हें लगता था कि ये हमारे लिए बहुत कुछ करने के लिए शादी-ब्याह नहीं कर रही। अपना जीवन-करियर सब त्याग दिया।

ये वो मायावती थी जिसकी मूर्ति कहीं नहीं थी लेकिन, यूपी का करोड़ो दबा-कुचला अधिकारविहीन पीछे डंडा-झंडा लिए गर्मी-पानी-जाड़ा में मायावती के नाम का झंडा बुलंद करता घूम रहा था। फिर मायावती को ये करने की क्यों सूझी। इन करोड़ो लोगों पर मायावती को भरोसा क्यों नहीं रहा कि ये उनके मरने के बाद भी उनका नाम उसी बुलंदी पर रखेंगे जहां आज बिठा रखा है। यही वो लोग थे जो, मायावती के बनाए अंबेडकर पार्क में इकट्ठा होते हैं। एक दिन की रोजी-रोटी त्यागकर लखनऊ पहुंचते हैं। मनुवाद की खिलाफत में मायावती के साथ खड़े होने के लिए गंगा का किनारा छोड़कर लखनऊ के अंबेडकर पार्क में बनी नहर को भीमगंगा बना देते हैं। गंगा से पवित्र मानकर उसी पानी से आचमन करते हैं।

अब देखिए मायावती क्या कर रही हैं। मायावती इन अधिकार विहीन लोगों को अधिकार दिलाने की मृगमरीचिका दिखाकर सत्ता में आ गईं। अधिकार छीनने वालों की जिस टोली का ढिंढोरा पीटकर ये सत्ता में आईं सत्ता में आते ही उन्हीं लोगों को मंच पर खड़ा कर दिया। और, उन अधिकार विहीन लोगों से कहा- ये आपके मसीहा हैं इन्हें अधिकार दीजिए ये, आपके अधिकारों के लिए लड़ें

अब उन भीमगंगा में आचमन करनेवालों को लगता है कि जैसे ठगे गए हों। लखनऊ में खड़े 60 हाथी इन पर भार बन रहे हैं। बहनजी और उनके साथ दूसरे अधिकार विहीनों के लिए लड़ने वाले नेताओं की मूर्तियों पर सिर्फ लखनऊ में 2700 करोड़ रुपए खर्च हो गए। और, कहते हैं न कि हाथी पालने से ज्यादा उसे खिलाना भारी पड़ता है। कुछ ऐसा ही है। यूपी के अधिकार विहीनों की मेहनत की कमाई का 270 करोड़ रुपए हर साल सिर्फ इन पत्थर की मूर्तियों और हाथिय़ों को खिलाने में (मरम्मत) बरबाद होगा।

गांव-गिरांव में इन अधिकार विहीनों की जमीन का पट्टा नहीं हो पा रहा है। रत्ती-धूर जमीन में ये परिवार चला लेते हैं। जमींदार टाइप के लोग इनकी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं। इनको गांव की जमीन दिलाने का वादा करने वाला मायावती अब यूपी की सबसे बड़ी जमींदार हो गई है। जमींदार है इसलिए जमींदारी भी कर रही है। सिर्फ लखनऊ में 413 एक़ड़ की इस जमींदारी कब्जे की जमीन पर पत्थर के हाथी, पत्थर की मायावती, पत्थर के कांशीराम और पत्थर के दूसरे नेता खड़े हैं जो, जमींदारी मिटाने की लड़ाई लड़ रहे थे। पूरा का पूरा वो आंदोलन पत्थर होता दिख रहा है जो, नोएडा के एक गांव की अधिकार विहीन सामान्य महिला को कुछ महीने पहले तक देश की प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने की जमीन बना चुका था।

और, ये आंदोलन खत्म होगा ऐसा नहीं है। सिर्फ अधिकार विहीनों की ही बात क्यों। मायावती की जिस सोशल इंजीनियरिंग ने यूपी में सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए थे। वो, भी टूटेगा। सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय नारा भर बनकर रहा गया है। मायावती के नजदीकी हिताया और सिर्फ उन्हीं का सुखाय। और, सबको सिर्फ इन पत्थरों में ही अपना सुख खोजना होगा। 413 एकड़ जमीन और 2700 करोड़ रुपए इतनी बड़ी रकम तो, थी ही कि अधिकार विहीनों (5 करोड़ 90 लाख लोग इस प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे हैं) के अधिकार कुछ तो मिल ही जाते।

बात सिर्फ लखनऊ की ही नहीं है। मायावती अपने आखिरी निशान हर जगह छोड़ देना चाहती हैं। दिल्ली से नोएडा घुसते ही लखनऊ जैसे ही गुलाबी राजस्थानी पत्थरों की ऊंची दीवार दिखने लगती है। करीब 3 किलोमीटर का ये पूरा क्षेत्र जंगल था-हरा-भरा था। इन पत्थरों की ऊंची दीवारों के बीच में पत्थर के हाथी और मूर्तियां हैं जो, गर्मी की चिलचिलाती धूप में चिढ़ पैदा करते हैं। मेरा मन इन मूर्तियों को ढहाने का होता है।

नोएडा के दूर-दराज गांवों में भी लोगों के रहने के लिए घर मिलना मुश्किल है। इनता महंगा कि आम आदमी तो, सिर्फ देखते हुए जिंदगी बिता लेता है। ये पत्थर के जंगल वहां तैयार हो रहे हैं जहां, ठीक सामने की जमीन पर करोड़ो के बंगले हैं। मायावती का मनुवाद विरोध एक चक्र पूरा कर चुका है। करोड़पति बंगले वाले और मायावती और उनके पहले के मनुवाद विरोध नेता पत्थर के ही सही लेकिन, पड़ोसी हैं। आमने-सामने रहते हैं। खैर, मैं भी यूपी में ही रहता हूं इसलिए ज्यादा हिम्मत नहीं करूंगा।

Friday, January 22, 2010

आज समाजवाद के शालाका पुरुष चले गये, आज एक वो नेता जो सिर्फ़ नाम से ही नही बल्कि मनसा, वाचा, कर्मना छोटे लोहिया थे, आज श्री जनेश्वर मिश्र जी चले गये..और सुनकर मॅ अपने दिल के दर्द और आँखो के आसूओ को छुपा नही पाया.भारतीय राजनीति मे बड़े बड़े विचारक हुए , लेकिन जो जितना बड़ा विचारक बना जनता से उसकी पहुच उतनी ही दूर होती ग...यी..लेकिन स्वर्गिया श्री जनेश्वर जी इसके अपवाद थे..
इनका प्रशनशक तो मई शूरू से थे लेकिन बलिया उपचुनाव का इनका वाक्य की " ये चुनाव नीरज शेखर बनाम विनय शंकर नही बल्कि चंद्रशेखर बनाम हरिशंकर है " ने जब चुनावी फ़िज़ा ही बदल दी और गुणडई और दबँगाई के नंगे नाच के साथ सत्ता के पूर्णरूपेण दुरुपयोग के बाद भी जब नीरज शेखर जी जीते तो मुझे लगा की शब्दो का आप सचमुच जनता की नब्ज़ पर पकड़ रखते थे..

आज सिर्फ़ समाजवादी पार्टी ने ही नही बल्कि अल्लहाबाद ने भी अपना एक बहुत ही कीमती मोटी खो दिया, हिन्दुस्तान के लिए ये एक अपूरणिया क्षति है..बड़ी इच्छा थी या यू कहे की प्यास थी की भारत जाकर इनके सान्निंध्य का सुख प्राप्त करूँगा और गयाँ के चार मोटी लूँगा लेकिन शायद ईश्वर को ये मंजूर नही था और यही जीवन है इन्ही शब्दो के साथ की ईश्वर इन्हे फिर से इन्ही तेजस्वी विचारो के साथ हमारे बीच भेजे और आप फिर से आम जनता की लड़ाई लड़े----------आपका प्रशन्श्क

Saturday, January 16, 2010

अखबार से जिन्हें आता है बुखार

अगर अाप एक अच्छे डेमोकेट्र हैं और जनतंत्र में आपका भरोसा है तो चाहेंगे कि आपके कामकाज और आचरण की समीक्षा-आलोचना करने वाला कोई मीडिया जरूर हो-अखबार हो। वह इतना निर्भीक भी हो कि कमजोरियों पर उंगली रखता हो। लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम करने वाला, खास तौर पर अगर वह सत्ता पक्ष में है तब तो लोकतंत्र का उससे कुछ ज्यादा ही तकाजा बनता है कि वह अखबार को अपनी सरकार की चालढाल का आईना बनाए। अपने शासन-प्रशासन की कमजोरियों, खामियों और स्वेच्छाचारिता को जानता रहे और उनका इलाज भी करे। आखिर चौथे खंभे की महत्ता और मर्यादा भी तो यही है। लेकिन अगर लोकतंत्र को पाखंड बना दिया जाए और निहित स्वार्थ व लोभ-लाभ के पुतले बने दरबारियों को ही आंख-कान बना लिया जाए, तब तो वही होगा जो उत्तर प्रदेश के मौजूदा निजाम में हो रहा है। अखबार से जिन्हें बुखार आता हो, वे चाहे और कुछ भी हों, लोकतांत्रिक नहीं हो सकते। सर्व समाज तो छोड़िए ऐसे लोग किसी समाज के लायक नहीं हो सकते। तानाशाही मिजाज रखनेवालों को भला समाज और लोकतंत्र से क्या लेना-देना। शासन-प्रशासन के कारनामों को बेबाक ढंग से लगातार उजागर करने वाले हिन्दी दैनिक डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के चेयरमैन व प्रबंध संपादक डॉ. निशीथ राय को लखनऊ विश्वविालय स्थित रीजनल सेंटर फॉर अर्बन एंड इन्वायरमेंटल स्टडीज के निदेशक के नाते आवंटित सरकारी आवास उनकी गैर-हाजिरी में जिस तरह खाली कराया गया, वह सरकार की लाजवाब कारस्तानी की एक काली नजीर के रूप में ही सामने आई है। भारी पुलिस और पीएसी बल लगाकर जिस तरह मकान को घेरने के बाद सम्पत्ति विभाग के अभियंता, अफसर और अमला लगभग शाम के वक्त घर में घुसा और भारी अफरातफरी मचाते हुए टूट-फूट के साथ घर का सामान बाहर फेंककर मकान को सील किया, उसे बर्बर कार्रवाई के सिवा क्या कहा जा सकता है? सील किए गए मकान में बिजली जल रही है और अगर शॉटसर्किट हो जाए और मकान समेत उसमें बाकी बचा सामान नष्ट हो जाए तो इसकी जवाबदेही किस पर होगी? शासन-प्रशासन के ऊपरी तल से जब अराजकता होती है तो वह हर स्तर पर ही नहीं, नीचे तक जाती है। इसलिए अगर आज अराजकता का ही राज है, तो इसकी वजह खुद समझी जा सकती है। क्या अखबार निकालना गुनाह है? क्या सच्चाई का साथ देना गुनाह है? क्या इस तरह की अराजक कार्रवाई से लोकतंत्रवादियों का मनोबल तोड़ा जा सकता है? ठीक ही लिखा है दुष्यंत कुमार ने-

तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए

A narrow escape...

अभी अभी घर आया हु, और सबसे पहले गुरु महाराज परिवा राउर आप चाहने वालो का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा की पता नहीं किसकी किस्मत से आज यहाँ सही सलामत हूँ..दोस्तों लोग मौत को लेकर तमाम तरह की बाते करते है, तमाम कहानिया सुनते है , सुनकर मजा भी आता है और कभी कभी मुह से निकल भी जाता है की मै "मौत से नहीं डरता" लेकिन सचमुच मौत से सामना होने पर कैसा लगता है मुझे आज महसूस हुआ..
आज मै और मेरे मित्र सोहेल भाई ने कुछ काम से पैरिस से उत्तरी फ्रांस के एक कसबे में जाने का प्रोग्राम बनाया, हमने सुबह ७ बजे से अपना सफ़र शुरू किया , जबकि सडको पर अभी काफी अँधेरा था और लोग बाग़ अपने काम पर जाने की जल्दी में दिख रहे थे, पैरिस में तापमान ६ डिग्री के आस -पास था जो की पिछले कई दिनों की तुलना माँ काफी सुहावना था, हमने कार गरम की और बहुत ही खुले मौसम में निकल गए, लेकिन जैसे ही पैरिस से आगे बढे मौसम बदलने गया , कोहरा घना होता गया , कसबे आने पर कोहरा थोडा कम रहता और फिर बढ़ जाता , लेकिन जैसे की फ्रांस के लोगो को कानून पालन के लिए आस-पास पुलिस की मौजूदगी की जरुरत नहीं होती तो सफ़र अच्छे से चलने लगा, हमने दुरी कम करने के लिए नेशनल रुट लिया, और एक जगह रुक कर एक खुबसूरत फ्रेंच लड़की के यहाँ कैफे पीकर आगे बढे , शहर से थोडा आगे बढे न पर हमने एक रोड पकड़ी जहा की अधिकतम गति सीमा १३० किमी/ घंटे थी..बहुत ही जल्दी कोहरे और ठण्ड के बावजूद (पैरिस से थोडा सा बढ़ते ही तापमान घटने लहगा और फाइनली १ डिग्री हो गया..) हमने जल्दी ही १०० से ज्यादा किमी का सफ़र तय कर लिया, फिर जंगली इलाका शुरू हो गया लेकिन गाडियों क गति ११० से १२० ही थी..इसी बीच जंगल में कुछ दिखा और कुछ देखने में सोहेल भाई का ध्यान सेकंड के कुछ हिस्सों के लिए बटा और हमारी गाड़ी सीधे कच्ची सड़क पर आ गयी और १२० की स्पीड में ब्रेक लगने पर और फिसलते हुए खाई और जंगलो की तरफ जाने लगी..फिर हमारी आँखे तो खुली रही , लेकिन हमारे दिलाग बंद हो गए, क्या हुआ , कैसे हुआ और कैसे ब्रेक लगा कुछ पता नहीं चला और गाड़ी कच्ची सड़क से पूरी आवाज़ में चीखते हुए एक अर्धचन्द्राकार आकर बनती हुई रोड पर आअकर खड़ी हो गयी और असली खतरा अब , पिच्छे से १०० से ज्यादा की स्पीड में गाडियों की लाइन लगी हुई थी और अगर इश्वर की कृपा न होती और पीछे कोई बड़ी गाड़ी यह ट्रक होती तो हमें एक बहुत ही बुरी मौत से कोई नहीं bacha पता..लेकिन पीछे एक मेडिकल की गाड़ी थी उन्होने रोक कर सारा त्रफ्फिक रोक दिया lekin..उन कुछ सेकेंड्स में पूरी जिंदगी, सारा परिवार, आँखों के सामने घूम गया, लगा भगवान आज आपने नयी जिंदगी दी है...आज अहसास हुआ की सचमुच जिंदगी कितनी अनमोल होती है अहसास तब होता है जब ये छोटने लगती है...इन्ही शुभकामनाओं के साथ की इश्वर इसी तरह सबकी मदद करे....आपका -अजित

Thursday, January 14, 2010

विधान परिषद के चुनावी नतीजो ने एक बात फिर दिखाया की कैसे बाहुबल, सत्ता तंत्र और भ्रष्टतंत्र के सामने सोया हुआ जनतंत्र हार जाता है..या यू कहू की कुचल जाता है, लेकिन इसके साथ ही एक बात और साबित हुई है की भले ही मीडीया या स्वघोषित राजनैतिक विश्लेषक जो भी भौकें अगर उत्तर प्रदेश मे बसपा को कोई टक्कर दे सकता है तो वो सपा ही है,

और जिस तरह से सरकारी अधिकारियो को पालतू ....बना दिए जाने के बाद भी जीत का जो अंतर रहा तथा जिस तरह २५ से ज़्यादा जगहो पर पार्टी ने दूसरा स्थान पाया उससे साबित होता है की सपा मे जनता का विश्वास अब भी है..
भारतीय राजनीति के युवराज को उनके सिपहसालार कितनी गंभीरता से लेते है ये भी दिख गया इन चुनावों मे, बसपा विरोध कीबातों के बावजूद कई जगहो पर क्षेत्रीय मठाधिशो ने पार्टी के प्रत्याशी ना उतार कर बसपा को सहयोग किया, साबित हो गया की या तो कांग्रेस और बसपा नूरा कुश्ती खेल रहे है या तो राहुल गाँधी की बतो का पार्टी मे एक गुंडे नेता प्रोमोद तिवारी और मुहफट बेनी वर्मा के सामने नही चलती..अगर ऐसा नही है तो कांग्रेस नैतिक साहस दिखाए और इनके खिलाफ कार्यवाई करे जो की संभव ही नही है...

जिस तरह के गुण्डों के लिए कमिश्नर से लेकर आईजी तक और सिपाही से लेकर लेखपाल तक ने सरकारी वफ़ादारी दिखानेमे सर्वाधिक वफ़ादार कहे जाने वाले जानवर को भी पीछे छोड़ दिया, और जिस तरह गुंडे माफियाओ ने प्रदेश मे अपहरण और पंचायत प्रतिनिधियो की हत्या तक करने मे संकोच नही किया ये स्पष्ट संकेत है की अगर उत्तर प्रदेश नही जगा तो आने वाला वक़्त घरो मे भी व्यक्ति सुरक्षित नही होगा..
...
अब जनता जान चुकी है की उनकी लड़ाई ना तो कांग्रेस और ना भाजपा के बस की है, बस समाजवादी पार्टी को पुनरावलोकन और आत्मनिरीक्षण के बाद जनता दरबार मे जाने की ज़रूरत है..जिस दिन सेंट्रल पोलीस के नीचे चुनाव हुए बसपा सरकार की चूले हिल जाएँगी.

Monday, January 4, 2010

बसपा पर नकली बसपा होने का आरोप

मनोहर आटे की पुकार पर बामसेफ-बसपा से जुड़े पुराने साथी सक्रिय हो गए हैं। वे मायावती को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अध्यक्ष पद से हटाने या वैकल्पिक पार्टी बनाने जैसे तमाम सुझावों पर विचार कर रहे हैं। इस बाबत बामसेफ व कांशीराम से जुड़े पुराने लोगों के बीच बैठकों का दौर जारी है।

गत 15 दिसंबर को दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक बैठक हुई। अगली बैठक कुछ ही दिनों में बंगलौर में होनी है। बैठकों का यह सिलसिला `मायावती हटाओ, मिशन बचाओ´ अभियान का हिस्सा है। फिलहाल इसकी कमान मनोहर आटे के हाथों में है। दिल्ली की बैठक उन्हीं की अध्यक्षता में हुई थी। जानने वाले जानते हैं कि बामसेफ इनके दिमाग की ही उपज था।

हालांकि, अब वे आगे निकल चुके हैं। अपने पुराने साथियों के साथ मिलकर बसपा से अलग विकल्प तलाश रहे हैं। लेकिन, इस अभियान में उत्तर प्रदेश का कोई पुराना साथी उनके साथ नहीं दिख रहा है। यह अभियान का वह पक्ष है, जिसको लेकर सवाल उठ रहे हैं। खैर, जो भी हो, उन्होंने मायावती के खिलाफ एक मोर्चा तो खोल ही दिया है। यहां बैठक में हिस्सा लेने आए बसपा के पूर्व सांसद हरभजन सिंह लाखा ने कहा कि हमारा विरोध मायावती के खिलाफ नहीं है। लेकिन बहुजन समाज बनाने के लिए जिस आंदोलन की शुरुआत `बामसेफ´ से हुई थी, उसका मायावती ने सत्यानाश कर दिया। सर्वजन समाज के नाम पर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को हवा दे रही है। बहुजन समाज अब उनके लिए महत्व की चीज नहीं है। ऐसी स्थिति में विकल्प की तलाश जरूरी है। उन्होंने अपने पुराने साथियों को संबोधित करते हुए कहा, “हमारा मिशन यह नहीं था कि हम राज करें। हमारा मिशन तो यह था कि लोगों को बता दें कि यह समाज जाग गया है।”

देश के अन्य राज्यों से बैठक में हिस्सा लेने आए लोगों ने भी मायावती के सर्वजन समाज के फार्मूले से अपनी असहमति जाहिर की। साथ ही बहुजन समाज यानी अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए नए राजनीतिक विकल्प की बात दोहराई।

दक्षिण भारत यानी कर्नाटक से आए करीब 70 वर्षीय ए.एस. राजन ने कहा, पूरे देश में बहुजन मुवमेंट स्थिर हो गया है। इस समाज का बड़ा तबका खाना, कपड़ा, आवास व शिक्षा के अभाव में कष्टदायक स्थिति में है। दूसरी तरफ देखने में आ रहा है कि उनके नाम पर करोड़ों रुपए की लूट मची है। इसलिए एक बहुउद्देशीय आंदोलन की जरूरत है। उन्होंने मायावती की बसपा पर नकली बसपा होने का आरोप लगाया और कहा, हम असली लोग हैं। अब हमें ही मोर्चा संभालना होगा।

आटे ने कहा, हम लोग तो बनाने वाले लोगों में हैं। बामसेफ बनाया। डीएस-4 और बसपा बनाया। क्या हुआ, यदि कुछ लोगों ने गलत मंशा से इस पर कब्जा कर लिया। लेकिन, अब समय आ गया है कि कुछ नया किया जाए ताकि हम बाबा साहेब आंबेडकर के मिशन को पूरा कर सकें। अब देखना यह है कि उत्तर प्रदेश की जमीन से दूर रहकर वे पुराने अनुभवी लोग मायावती से निपटने का कौन-सा नुस्खा अपनाते हैं।

बीते जमाने की बात हुई रेल सुरक्षा जीवन रक्षा

भारत का रेल तंत्र विश्व में सबसे बडे रेल तंत्रों में स्थान पाता है। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों द्वारा अपनी सहूलियत के लिए बिछाई गई रेल की पांतों को अब भी हम उपयोग में ला रहे हैं। तकनीक के नाम पर हमारे पास बाबा आदम के जमाने के ही संसाधन हैं जिनके भरोसे भारतीय रेल द्वारा यात्रियों की सुरक्षा के इंतजामात चाक चौबंद रखे जाते हैं।

सदी के महात्वपूर्ण दशक 2020 के आगमन के साथ ही रेल मंत्री ममता बनर्जी के रेल सुरक्षा एवं संरक्षा के दावों की हवा अपने आप निकल गई है। उत्तर प्रदेश में हुई तीन रेल दुर्घटनाओं ने साफ कर दिया है कि आजादी के साठ सालों बाद भी हिन्दुस्तान का यह परिवहन सिस्टम कराह ही रहा है।

भले ही रेल अधिकारी इन रेल दुर्घटनाओं का ठीकरा कोहरे के सर पर फोडने का जतन कर रहे हों, पर वास्तविकता सभी जानते हैं। कोहरा कोई पहली मर्तबा हवा में नहीं तैरा है। साल दर साल दिसंबर से जनवरी तक कुहासे का कुहराम चरम पर होता है। अगर पहली बार कोहरा आया होता तो रेल अधिकारियों की दलीलें मान भी ली जातीं।

सौ टके का प्रश्न तो यह है कि जब इलाहाबाद रेल मण्डल के दोनों रेल्वे ट्रेक पर ऑटोमेटिक ब्लाक सिस्टम लगे हैं तब इन स्वचलित यंत्रों के होने के बाद हादसे के घटने की असली वजह आखिर क्या है। जाहिर सी बात है कि या तो इस सिस्टम ने काम नहीं किया या फिर रेल चालकों ने इनकी अनदेखी की। प्रत्यक्षदर्शी तो यह भी कह रहे हैं कि जहां दुर्घटना हुई वहां लगभग आधे से एक किलोमीटर की दृश्य क्षमता (विजिबिलटी) थी।

जब भी कोई रेल मंत्री नया बनता है वह बजट में अपने संसदीय क्षेत्र और प्रदेश के लिए रेलगाडियों की बौछार कर देता है। अधिकारी उस टे्रक पर यातायात का दबाव देखे बिना ही इसका प्रस्ताव करने देते हैं। देखा जाए तो बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के रेलमंत्रियों ने अपने अपने सूबों के लिए रेलगाडियों की तादाद में गजब इजाफा किया है। देश के अनेक हिस्से रेल गाडियों के लिए आज भी तरस ही रहे हैं।

भारतीय रेल आज भी बाबा आदम के जमाने के सुरक्षा संसाधनों की पटरी पर दौडने पर मजबूर है। उत्तर प्रदेश के आगरा के बाद उत्तर भारत में प्रवेश के साथ ही शीत ऋतु में भारतीय रेल की गति द्रुत से मंथर हो जाती है। आम दिनों में मथुरा के उपरांत रेल रेंगती ही नजर आती है, क्योंकि देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली को आने वाली कमोबेश अस्सी फीसदी रेलगाडियों के लिए मथुरा एक गेट वे का काम करता है। दक्षिण और पश्चिम भारत सहित अन्य सूबों से आने वाली रेल गाडियों की संख्या इस लाईन पर सर्वाधिक ही होती है।

उत्तर भारत में आज भी घने कोहरे में भारतीय रेल पटाखों के सहारे ही चलती है। दरअसल रेलकर्मी कोहरे के समय में सिग्नल आने की कुछ दूरी पहले रेल की पांत पर पटाखा बांध देते हैं। यह पटाखा इंजन के जितने भार से ही फटता है। इसकी तेज आवाज से रेल चालक को पता चल जाता है कि सिग्नल आने वाला है, इस तरह वह सिग्नल आने तक सतर्कता के साथ रेल को चलाता है।

आईआईटी कानपुर के साथ रेल मंत्रालय ने मिलकर एंटी कोलीजन डिवाईस बनाने का काम आरंभ किया था, जिसमें रेल दुर्घटना के पहले ही रेल के पहियों को जाम कर दुर्घटना के आघात को कम किया जा सकता था। विडम्बना ही कही जाएगी कि इस डिवाईस के लिए सालों बाद आज भी परीक्षण जारी हैं।

सन 2008 और 2009 में देखा जाए तो 17 रेलगाडियां सीधी आपस में ही भिड गईं, 85 रेल हादसे पटरी पर से उतरने के तो 69 हादसे रेल्वे की क्रासिंग के कारण हुए। इतना ही नहीं आगजनी के चलते 3 हादसों में भारतीय रेल द बर्निंग ट्रेन बनी। 2008, 09 में कुल 180 रेल दुर्घटनाओं में 315 लोग असमय ही काल के गाल में समा गए। रेल्वे के संधारण का आलम यह है कि आज भी रेल्वे संरक्षा से जुडे लगभग नब्बे हजार पद भर्ती के इंतजार में रिक्त हैं। देश में साढे सोलह हजार रेल्वे फाटक आज भी बिना चौकीदार के ही चल रहे हैं।

भारतीय रेल में दुर्घटनाएं न हो इसके लिए बीते हादसों से सबक लेने की महती जरूरत है। 01 अक्टूॅबर 2001 को पंजाब के खन्ना में हुए रेल हादसे के बाद 2006 तक के लिए सत्तरह हजार करोड रूपए का रेल संरक्षा फंड बनाया गया था। इस फंड से भारतीय रेल के सभी पुराने यंत्रों और सिस्टम को बदलने का प्रावधान किया गया था। विडम्बना ही कही जाएगी कि यह फंड तो खत्म हो गया किन्तु भारतीय रेल का सिस्टम नहीं सुधर सका।

स्वयंभू प्रबंधन गुरू और पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के लिए यह हादसा तो जैसे सुर्खियों में वापस आने का साधन हो गया है। हादसे के बाद पानी पी पी कर लालू ने ममता को कोसा। वैसे लालू का यह कहना सही है कि अगर घने कोहरे को ही दोष दिया जा रहा है तो विजिबिलटी के अभाव में रेल के परिचालन की अनुमति आखिर कैसे दी गई।

नए साल पर रेल यात्रियों को तोहफे के तौर पर रेल मंत्री ममता बनर्जी ने इस तरह की भीषण दुर्घटनाएं ही दी हैं। रेलमंत्री अगर चाहतीं और भारतीय रेल की व्यवस्था में वांछित सुधार कर दिए जाते तो संभवत: इन हादसों को रोका जा सकता था। ममता अपनी कर्मभूमि बंगाल में हैं और 05 जनवरी को वे अपना जन्मदिन जोर शोर से मनाना चाह रहीं थीं। इस रेल हादसे के बाद उनके जन्मदिन के जश्न में रंग में भंग पड गया है।

रेलमंत्री ममता बनर्जी भारतीय रेल के लिए विजन 2020 का खाका तैयार कर रहीं हैं पर उसका आधार इतना अस्पष्ट है कि यह बनने के पहले ही धराशायी हो जाएगा। ”मुस्कान के साथ” यात्रा का दावा करने वाली भारतीय रेल के अधिकारी इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि चाहे जो भी रेल मंत्री आए, साथ में बुलट ट्रेन के ख्वाब दिखाए पर भारत की रेलों की पांते अभी तेज गति और ज्यादा बोझ सहने के लिए कतई तैयार नहीं है। ”रेल सुरक्षा, जीवन रक्षा” अब गुजरे जमाने की बात होती ही प्रतीत हो रही है।लिमटी खरे

Sunday, January 3, 2010

आपसी तालमेल में छिपा है विकास का राज

झारखंड में चुनाव बाद लोकप्रिय सरकार का गठन हो गया है. करीब 11 माह का राष्ट्रपति शासन समाप्त हो चुका है. नयी सरकार के सामने कई अवसर और कई चुनौतियां हैं. विकास के कार्यो में पारदर्शिता लाते हुए इसका लाभ आम लोगों तक पहुंचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. नयी सरकार की प्राथमिकताएं और क्या हो सकती हैं, इस पर हम एक श्रंखला प्रारंभ कर रहे हैं, जिसमें देश के प्रबुद्ध लोग अपने विचार रखेंगे. प्रस्तुत है इसकी पहली कड़ी.





किसी भी आम चुनाव के बाद जिस सरकार का गठन होता है, उससे देश-प्रदेश की जनता की बेहतरी की उम्मीद करना स्वाभाविक है. झारखंड में जिस तरह की परिस्थितियों के बीच वहां की जनता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था जताते हुए मतदान में भाग लिया, वह काबिले-तारीफ़ है. जहां तक नवगठित झारखंड सरकार की प्राथमिकता की बात है, तो सबसे पहले हमें प्रदेश की जनता द्वारा ङोली जा रही समस्याओं को ध्यान में रखना होगा.झारखंड के निर्माण के बाद से वहां भ्रष्टाचार ने ऊ पर से नीचे तक अपनी जड़ें बड़ी गहराई से जमायी हैं. गठन के बाद से ही भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए. इससे प्रदेश के बाहर भी झारखंड की छवि खराब हुई है. इस भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना वहां की सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि सुशासन की राह पर प्रदेश को बढ़ाया जा सके. लेकिन केवल कह देने मात्र से या घोषणा कर देने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होनेवाला. इसके लिए कठोर कदम उठाये जाने की जरूरत है. बिना राजनीतिक इच्छाशक्ित और जन-जागरूकता के यह संभव नहीं है. साथ ही साथ भ्रष्टाचार के जो भी मामले सामने आते हैं, उनमें त्वरित कार्रवाई की व्यवस्था कर ही हम लूट-खसोट की परंपरा को खत्म कर सकते हैं.



एक और महत्वपूर्ण बात है कि जो भी सरकारें वहां सत्ता में हैं, वह राजनीतिक रूप से भले ही एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों, लेकिन प्रदेश के विकास के प्रश्न पर सभी को एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए नीतियों का निर्माण करना चाहिए. तभी वहां विकास की गति को तेज किया जा सकता है. आज यह देखने में आता है कि सरकार और उसके सहयोगी व प्रमुख विपक्षी दल के राजनीतिक हित टकराने के कारण हम ऐसी पॉलिसी नहीं बना पाते, जिनमें प्रदेश के लोगों की भलाई छुपी हो. बेहतर नीतियों के अभाव में झारखंड जैसे संसाधन-संपन्न राज्य भी विकास के मामले में पिछड़ जाते हैं और सीमित अर्थो में विकास होता भी है, तो उसका लाभ कुछ खास लोगों तक सिमट कर रह जाता है. सरकार अगर नेक इरादों से विपक्ष को साथ लेकर सुशासन के रास्ते पर आगे बढ़े, तो निश्चित रूप से प्रदेश का विकास होगा. केवल इकट्ठे होकर सरकार बनाने से काम नहीं चलनेवाला, बल्कि साथ-साथ सरकार चलाने में प्रदेश की जनता की भलाई का राज छिपा हुआ है.विगत वर्षो में झारखंड में एक और प्रवृत्ति देखने को आयी है. बिजनेस घरानों की दावेदारी और उनके काम की जांच किये बिना सरकार द्वारा उनके पक्ष में व्यवसाय के लिए एमओयू यानी सहमति पत्र जारी किये जाते रहे हैं. इस प्रवृत्ति ने प्रदेश का बहुत ही नुकसान किया है. मेरा मानना है कि उद्योग व व्यवसाय के एमओयू हों, लेकिन इस प्रक्रिया में पूरी तरह से पारदर्शिता अपनायी जाये. कोई भी सरकार चाहे वह प्रदेश की हो या केंद्र की, अगर सुशासन लाना चाहती है, तो उसे व्यवस्था में पारदर्शिता अपनानी होगी. कोयले के खदानों या अन्य खनिज पदार्थो किसी भी बिजनेस घराने को दिये जाते हैं, तो उस प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बनाया जाना जरूरी है. साथ ही मॉनिटिरिंग के स्तर पर भी सुधार हो.नक्सलवाद की बात अक्सर की जाती है, लेकिन इसके मूल में जो बातें छुपी हुई है, उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है. सरकार को गरीब तबके के कल्याण के लिए बिना किसी भेदभाव के कदम उठाने चाहिए. ऐसा कर सरकार सुशासन में उनकी आस्था जगा सकती है. अगर जनता के खिलाफ़ भेदभावपूर्ण नीति अपनायेंगे और उनके दुख-दर्द को दूर करने का समुचित प्रबंध नहीं करेंगे, तो व्यवस्था के विरुद्ध असंतोष फ़ैलना स्वाभाविक है. इस असंतोष को भुनाने के बजाय उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए.

सौजन्य-हरबंश जी