Sunday, November 29, 2009

आठ प्रधानमंत्री देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश आज नेतृत्व के सबसे बड़े संकट से जूझ रहा है। समस्याओं के भंवर में फंसा राज्य रसातल की ओर बढ़ता जा रहा है। अफसोस की बात है कि इन समस्याओं के हल के लिए राज्य और केंद्र द्वारा जो प्रयास किए जा रहे हैं वे समस्याओं को बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं, क्योंकि अधिकाश निर्णय राज्य की बुनियादी जरूरतों व समस्याओं की विविधता को समझे बिना लिए जा रहे हैं। वास्तव में उत्तर प्रदेश अपने आप में अनेक विविधताओं को समाए हुए है। पूर्वी, मध्य, ब्रज, पश्चिमी और बुंदेलखंड, सभी हिस्सों की अपनी जरूरतें व समस्याएं हैं। साफ तौर पर कोई एक हल पूरे राज्य का हल नहीं हो सकता। हर क्षेत्र की समस्याओं का हल उसकी जनसाख्यिकीय और भौगोलिक खासियतों को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। इसके अलावा विकास संबंधी मानकों के आधार पर राज्य के विभिन्न हिस्सों में भारी असंतुलन व अंतर है, लेकिन अफसोस की बात है कि राज्य के भीतर पनपते इन अंतरों को पाटने का कभी भी सार्थक प्रयास नहीं किया गया। इसकी विशालता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की आबादी 8 करोड़ है और अकेले यूपी की आबादी लगभग 20 करोड़ है। दुनिया के सिर्फ पाच देशों की आबादी ही इससे अधिक है।

उत्तर प्रदेश सरकार सूबे की इस विविधता से पूरी तरह से अनजान है। कृषि और शिक्षा अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। शिक्षा की बदहाली को इस बात से समझा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा के मामले में जहा राष्ट्रीय औसत 34 छात्रों पर एक शिक्षक का है वहीं उत्तर प्रदेश में यह औसत 51 है। कृषि की हालत तो और भी बदतर है। राज्य के राजस्व का 36.8 प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता है और 66 प्रतिशत लोग रोजगार के लिए अभी भी कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन किसान और कृषि उपेक्षा के सबसे अधिक शिकार हैं। यूपी देश का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है, लेकिन किसानों को गन्ने की उचित कीमत मयस्सर नहीं है। केंद्र सरकार के ताजा फैसलों से गन्ना उत्पादक किसानों के समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित हो गया है। इससे एक बार फिर साफ हो गया है कि केंद्र गन्ना किसानों और चीनी उद्योग को जंजीरों में जकड़ कर रखना चाहता है। पूरे राज्य के किसान इन दिनों गन्ने की कीमत को लेकर आदोलनरत हैं, कहीं वे अपनी फसल जला रहे हैं तो कहीं आत्मदाह कर रहे हैं। गन्ने की कीमतों पर उत्तर प्रदेश और देश में चल रही राजनीति अंतर्मन को झकझोर देने वाली है। पिछले साल की तरह चालू साल में देश में चीनी का उत्पादन घट गया और यह 150 लाख टन पर आ गया, जिससे चीनी की कीमतें आसमान छूने लगी हैं और उपभोक्ता बेहाल हो रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार गन्ना किसानों को बाजार शक्तियों से अलग रखते हुए उनकी तकदीर के सारे फैसले खुद करना चाहती है। इसका परिचायक केंद्र सरकार का अध्यादेश है। देश के अलग-अलग राज्यों के किसानों और उनकी उत्पादकता को समझे बगैर केंद्र ने गन्ना मूल्य तय करने के लिए एफआरपी व्यवस्था लागू करने की तुगलकी घोषणा कर डाली। केंद्र सरकार ने इस अध्यादेश को तब वापस लिया जब किसानों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया।

बड़ा सवाल यह है कि क्या देश भर के लिए गन्ने का एक दाम तय किया जा सकता है? विषेषज्ञों की मानें तो यह संभव ही नहीं है, क्योंकि गन्ना उत्पादन के लिहाज से देश कई हिस्सों में बंटा है। गन्ना असल में ट्रापिकल जलवायु की फसल है, जिसके लिए दक्षिणी राज्य और महाराष्ट्र उपयुक्त हैं। दक्षिणी राज्यों में गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज 90 से 110 टन तक है, जबकि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा जैसे गैर ट्रापिकल जलवायु वाले राज्यों में इसकी उत्पादकता 43 से 60 टन प्रति हेक्टेयर तक ही है। साफ है कि उत्तरी राज्यों में प्रति हेक्टेयर लागत अधिक बैठती है। जब उत्तरी राज्यों में गन्ने की उत्पादकता दक्षिणी राज्यों के मुकाबले आधी है तो देश भर में एकसमान गन्ना मूल्य निर्धारित करने का कोई औचित्य ही नहीं दिखता है। इन्हीं वजहों से देश के अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी गन्ने का रकबा लगातार कम होता गया। यह विचित्र है कि किसानों के बढ़ते जख्म के बीच उत्तर प्रदेश सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है। राज्य सरकार का ध्यान मूर्तिया लगवाने और पार्क बनवाने पर है। किसानों की समस्याओं और गन्ने की कीमतों को लेकर उसके स्वर अभी भी मद्धिम हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में गन्ना आंदोलन के और अधिक आक्रामक होने से शायद ही कोई इनकार कर सकता

Saturday, November 28, 2009

http://www.janadesh.in/innerpage.aspx?Story_ID=1499%20&Parent_ID=1&Title=दलितों%20को%20डीएपी%20नही
इसलिए वोट का महत्व समझिए। वोट के बटन में आपके पांच वर्षो का भविष्य छुपा है. भविष्य बनाना है, तो सावधान होकर, सोच-समझ कर बटन दबाइए.राज्य में हुए भ्रष्टाचार की गंध, देश-दुनिया में फ़ैल गयी है. आये दिन बंद, अराजकता और हिंसा के बीच जीवन. यह भला झारखंडियों से बेहतर कौन जानता है ? रंगदारी, अपराधियों का भय, ध्वस्त पुलिस प्रशासन, भ्रष्ट सरकारें, यह सब झारखंड ने भोगा है. भोगा हुआ दुख, कहे हुए बयान से गहरा होता है. नक्सलियों की चुनौती-खौफ़ अलग है. इस चुनौती के बीच अंधेरे में रोशनी दिखाने की भूमिका विधायिका की थी. पर विधायिका में क्या हुआ ? यह भी झारखंडवासी जानते हैं.द्रौपदी का चीरहरण हुआ. कु राज दरबार खामोश रह गया. मूकदर्शक. उसी क्षण महाभारत की नींव पड़ गयी. झारखंड के कोने-कोने में अराजकता, भ्रष्टाचार, अशासन फ़ैलता रहा. क्योंकि अच्छे लोग घरों में चुप बैठ गये. मतदान, छुट्टी का दिन या जश्न का दिन नहीं होता. यह लोकतंत्र का मूल मर्म है. हजारों-हजार वर्ष की कुरबानी के बाद वोट का यह अधिकार मिला है. इसलिए वोट दें, हालात बदलें. लोग वोट देने नहीं जाते. ड्राइंग रूम में बैठ कर अच्छे समाज का ख्वाब देखते हैं. दरअसल समाज के पतन के ऐसे लोग जिम्मेदार हैं. घरों से निकलिए. झुंड में निकलिए. एक-एक वोट डालिए. इससे ही झारखंड का भविष्य बेहतर होगा. आपका भी. शायद केनेडी ने कहा था- अच्छे लोग घरों में सिमटते हैं, इसलिए हालात बदतर होता है . झारखंड के लिए यह प्रासंगिक उक्ति है.
भीष्म से बड़ा उदार चरित्र, ढूंढ़े मुश्किल है। द्रोणाचार्य, अप्रतिम हैं. कर्ण, सूर्य प्रतिभा से दीप्त है. पर इनके मौन या मूक सहमति से विनाश की नींव पड़ी. इसलिए घरों से निकलिए. आपका विवेक या अंतरात्मा जो कहे, उस पर चलिए. चुनाव में बड़े पैमाने पर धन-बल के इस्तेमाल की खबरें हैं. धन-बल अगर चुनाव प्रभावित करेगा, तो लोकतंत्र कमजोर होगा. हिंसा न हो, यह सबका दायित्व है. बूथों पर आपसी झड़प न हो, यह जरूरी है. यह सवाल एक दिन, बनाम पांच वर्ष का है. वोट का एक दिन= पांच वर्ष का भविष्य. इसलिए जाति, धर्म, अपना-पराया, बाहरी-भीतरी के उन्माद से बच कर काम करें. क्योंकि आप-अपना भविष्य गढ़ने जा रहे हैं.

निजी भविष्य बनाने के क्रम में सौदेबाजी नहीं होती, आत्मा की आवाज होती है. भारतीय मनीषियों ने कहा भी है. आत्म द्वीपो भव.लोकतंत्र के इस महापर्व के अवसर पर हम खुद ही अपने लिए प्रकाश बनें. समाज में रोशनी फ़ैल जायेगी.मत जरूर दें.पटमदा गया था. झारखंड आंदोलन के एक पुराने कार्यकर्ता मिले. नाम था बुद्धेश्वर महतो. झारखंड की दुर्दशा की कहानी उन्होंने लोकोक्तियों में सुनायी -नीधनेआर धन होले दिने देखे तारा(निर्धन व्यक्ति को धन मिलता है, तो दिन में ही तारे दिखता है)झारखंड में सत्ता मिलते ही लोग दिन में ही तारे देखने लगे. इसके बाद जो हुआ, वह देश ने देखा. पर बुद्धेश्वर महतो ने एक और लोकोक्ति सुनायी-गोबर खाले गाछे बाटिले, जल्दी उलटिए जाये.(गोबर के गे में अगर पेड़ बढ़ गया, तो वह अपने आप गिर जाता है)श्री महतो ने कहा, रांची की राजनीतिक धरातल गोबर का गा हो गया है. वहां जो पेड़ बढ़ते हैं, वो खुद अपने बोझ से गिर जाते हैं. वहीं सुदूर देहात में एक गंवई युवा ने कहा, राजनीति क्या है ? मनी (धनबल). फ़िर बताया, धनबल आया तो बंदूक और आदमी मिल जाते हैं. इस तरह पॉलिटिक्स = मनी. मैन और गन (राजनीति = पैसा, लोग और बंदूक). अगर राजनीति का यह बदरंग चेहरा बदलना है, तो यह वोट से ही बदलेगा. यह मान कर चलिए. राजनीति ही चीजों को बदलेगी. अच्छी राजनीति होगी, तो अच्छा माहौल होगा. बुरी राजनीति होगी, तो बुरा माहौल. अगर अच्छी राजनीति चाहते हैं, तो घरों में मत बैठिए. वोट डालिए. युवा, बेहतर भविष्य और नौकरी चाहते हैं, तो उन्हें राजनीति में सक्रिय होना होगा. कम से कम मतदान के दिन तो जरूर.
झारखंड विशेष ...


आज नौ वषाब बाद जहां झारखंड खड़ा है, वहां दो ही रास्ते हैं. सुधरने का या तबाह होने का. संयोग से चुनाव होनेवाले हैं. जो सुधार चाहते हैं, उनके लिए चुनाव एक अवसर है. चुनाव द्वार से ही सुधरने की पगडंडी गुजरती है. यह चुनाव झारखंड के लिए निर्णायक है, क्योंकि इस चुनाव के गर्भ से ही उस राजनीतिक संतान के जन्म की प्रतीक्षा है, जो झारखंड की बेड़ियों को काटेगा. इसके लिए जो भी सरकार बने, उसे कठोर निर्णय लेने होंगे. कई मोरचों पर. विधानसभा को हल ढ़ंढ़ना होगा. उन चुनौतियों-सवालों का जो झारखंड की बेड़ी-जंजीर बन चुके हैं. लगभग खत्म गवर्नेंस, बेकाबू भ्रष्टाचार और सरकार की उपस्थिति न होना, वे सवाल हैं, जिन्हें दसवें वर्ष में नयी सरकार और विधानसभा को ढ़ंढ़ने होंगे. अन्य जिम्मेवार संस्थाओं को भी.

अगर अतीत का राग बजा, तो फ़िर वही दलबदल, रोज सरकारों का आना-जाना, फ़िर भ्रष्टाचार का अनियंत्रित हो जाना. फ़िर झारखंड को तबाह होने से बचा पाना नामुमकिन है. नक्सली तब सबसे प्रभावी होंगे. अराजकता होगी. अव्यवस्था होगी.

इसलिए इस बार 15 नवंबर भिन्न पृष्ठभूमि में आया है. स्थितियां - हालात भिन्न हैं. चुनौतियां विषम हैं. हर मोरचों पर. राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, ओर्थक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में.

यह हल ढ़ंढ़ेगा कौन? कोई अवतार नहीं, चमत्कारी पुरुष नहीं, बल्कि झारखंड की जनता और नेता ही इसका हल ढ़ंढ़ेंगे. यह हल लोकतांत्रिक रास्ते से ही संभव है. बैलेट बॉक्स की पेटी से. इसलिए हर नागरिक को पहल करनी होगी. अकर्म की पीड़ा- बेचैनी से मुक्ति पाने के लिए. मतदान में भाग लेकर. ड्राइंग रूम में बैठ कर चिंतित होने से समाज-इतिहास नहीं बनता. इसलिए मतदान, अच्छे पात्रों, विचारों, दलों का चयन, राजनीतिज्ञों से सवाल-जवाब, ऐसे सारे प्रयास ही झारखंड को तबाह होने से बचा सकते हैं. यह ‘मत चूको चौहान’ की स्थिति है.
साभार- हरिवंश जी....
दिग्गज वोट मांगते घूम रहे हैं। जिनके दर्शन दुर्लभ हैं, जो सुरक्षा प्राचीरों में घिरे हैं, या जिनके जीवन का महत्वपूर्ण भाग पांच सितारा सुविधाओं में कटता है, वे गली-गांव भटक रहे हैं. सड़क छान रहे हैं. यह भ्रम हम दूर कर लें कि उन्हें हम मतदाताओं की चिंता है. नहीं, वे अपने लिए, अपने दल के लिए कवायद कर रहे हैं. हर दल झोली फैला चुका है. निर्दल भी याचक हैं.पर इनकी झोली में क्या है? किसलिए ये सत्ता चाहते हैं? यह पूछिए. पग-पग पर पूछिए. क्योंकि पूछने का मौका पांच वर्ष में एक बार आता है. अपना मत देकर पांच वर्षो के लिए अपना भविष्य आप गिरवी रखते हैं, इसलिए सोच-समझ लीजिए, झांसे में मत आइए. न जाति के, न धर्म के, न क्षेत्र के, न समुदाय के. न भावना में बहिए. ठोक-पीट कर फैसला कीजिए, क्योंकि आप अपना भविष्य तय करने जा रहे हैं, इसलिए जनता भी अपना एजेंडा बनाए. जहां और जब भी मौका मिले, दलों से पूछिए, प्रत्याशियों से बार-बार पूछिए कि गरीबों के लिए आपके पास कौन सी समयबद्ध योजनाएं हैं? क्या भूख, विकास, विकेंद्रीकरण, भ्रष्टाचार, माइनिंग (खनन), सुशासन, नक्सलवाद, विस्थापन वगैरह को आप झारखंड के संदर्भ में अहम मुद्दा मानते हैं? अगर हां, तो आपके पास समाधान के क्या ब्लूप्रिंट हैं?
पूछिए, क्या झारखंड में आप पंचायत चुनाव करायेंगे? क्या नीचे तक सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा? कैसे और कब होगा? ग्रामीण विकास योजनाएं, कैसे नीचे तक पहुंचेगी, बगैर भ्रष्टाचार के ? बिचौलिये रहेंगे या जायेंगे? जन वितरण प्रणाली कैसे ठीक होगी? इस राज्यपाल के आने के पहले, चीनी, केरोसिन वगैरह गांवों तक नहीं पहुंचते थे, फिर ऐसा न हो, इसके लिए क्या कदम उठेंगे? बिजली बोर्ड, लुट चुका है, वह राज्य में अंधेरा बांटने का केंद्र बना दिया गया। क्या आनेवाले दिनों में बिजली बोर्ड सुधरेगा? कब तक 85 वर्ष की उम्रवाले बार-बार बिजली बोर्ड के अध्यक्ष बनेंगे या उत्तराखंड से भ्रष्ट तत्वों को बुला कर उन्हें बिजली बोर्ड की कमान सौंपी जायेगी? ऐसे सारे सुलगते सवालों के क्या हल हैं, विधायक बननेवालों के पास? यह पूछिए.
सवाल अनंत हैं, क्योंकि ये सब इन्हीं राजनीतिक रहनुमाओें की देन हैं। पूछिए. युवाओं के लिए आपकी झोली में कुछ है? झारखंड लोकसेवा आयोग की परीक्षाएं पारदर्शी बनें, चयन विवादास्पद न हों, इसके लिए क्या रास्ते अपनाये जायेंगे? कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और स्कूलों के बारे में सरकार बनानेवालों के पास क्या ठोस प्रस्ताव हैं? केंद्र की मंजूरी मिलने के बाद नौ वर्ष हो गये, लॉ इंस्टीट्यूट नहीं बना. दो-ढाई वर्ष से आइआइटी, आइआइएम के प्रस्ताव मारे-मारे फिर रहे हैं. न अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज खुले, न प्रबंधन के बेहतर संस्थान, न मेडिकल कॉलेज. क्या ये सवाल हमारे होनेवाले शासकों की जेहन में हैं? क्या झारखंड के भूखों को कम दर पर अनाज देने के लिए कोई तैयार है? झारखंड में गरीबों की संख्या को लेकर विवाद है. एनसी सक्सेना की रिपोर्ट मानें, तो झारखंड के गांवों के 80 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. पर झारखंड सरकार मानती है 29 लाख लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. केंद्र सरकार कहती है सिर्फ 25 लाख लोग झारखंड में गरीबी रेखा के नीचे हैं. यह संख्या निर्धारण कैसे होगा? कौन करेगा? यह सवाल किसी दल के एजेंडा में है? क्योंकि गरीबों की संख्या के आधार से ही केंद्र से अनाज, केरोसिन, राहत वगैरह मिलती है. सरकार के 2004-05 के आंकड़ों (एनएसएस) के अनुसार, झारखंड के 60 फीसदी निर्धनतम लोगों के पास कार्ड नहीं हैं. गरीबों के लिए बना ‘सपोर्ट सिस्टम’ (राहत योजनाएं) ध्वस्त हैं. लाल कार्ड नहीं है. जनवितरण प्रणाली लगभग ठप है. देश के सबसे निर्धनतम नौ जिले झारखंड में हैं. क्या ये सवाल भी कहीं उठ रहे हैं? महज शब्दों तक नहीं. ठोस सुझावों के साथ.

झारखंड की खनिज संपदा ही इसके लिए अभिशाप है. खनिज मामलों में हुई सौदेबाजी ने झारखंड को पूरी दुनिया में चर्चित बना दिया है. झारखंड की खनिज संपदा लुट रही है. झामुमो के एक पूर्व मंत्री ने पिछले दिनों भाषण में कहा कि वे चीन गये थे. उन्हें देख कर खुशी हुई कि झारखंड के लौह अयस्क से चीन के स्टील कारखाने चल रहे हैं. उन्हें नहीं मालूम कि चीन स्मगल कर झारखंड से लौह अयस्क मंगा रहा है. अपना लौह अयस्क भंडार सुरक्षित रख रहा है. यह भारत सरकार की विफलता है. पर झारखंड में सरकार बनानेवालों को स्पष्ट होना चाहिए कि उनके खनिजों का इस्तेमाल कैसे होगा ? उनकी शर्तो पर, उनके हित में. या यहां के नेता खनिज से सौदेबाजी कर धन कमायेंगे और विदेश भेजेंगे? यह भी सही है कि यह खनिज संपदा हमेशा नहीं रहनेवाली. इसलिए इसके उपयोग की सार्थक नीति होनी चाहिए. यह स्पष्ट हो, पारदर्शी हो, इससे विस्थापन न हो, पर्यावरण न नष्ट हो. इन सवालों के उत्तर किसके पास हैं, यह लोगों से पूछना चाहिए. इसी तरह कोयला खनन, पत्थर काटने, स्पंज आयरन वगैरह के मुद्दे हैं. नरेगा के तहत लोगों को काम नहीं मिल रहा. कृषि क्षेत्र में झारखंड में बड़े काम होने हैं. सिंचाई में रत्ती भर वृद्धि नहीं हो रही है, पर भारी पूंजी खर्च हो रही है. यह सब कैसे हो रहा है? कौन कर रहा है? क्या ये सवाल उठेंगे? इसी तरह भ्रष्टाचार का मामला सबसे संगीन है. भ्रष्टाचार नियंत्रण के बगैर झारखंड में कुछ भी संभव नहीं. राज्य सत्ता कोलैप्स कर चुकी है. इन्हें ठीक करने का ब्लूप्रिंट किसके पास है? कौन अपराधमु माहौल दे सकता है? कैसे नक्सली समस्या से झारखंड मु हो सकता है? इन्हीं सवालों के जवाब से नया झारखंड बनेगा? मूल सवाल है कि झारखंड के ये सवाल इन चुनावों में उठ रहे हैं या नहीं? जनता सोचे, पहल करे और पूछे.