आठ प्रधानमंत्री देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश आज नेतृत्व के सबसे बड़े संकट से जूझ रहा है। समस्याओं के भंवर में फंसा राज्य रसातल की ओर बढ़ता जा रहा है। अफसोस की बात है कि इन समस्याओं के हल के लिए राज्य और केंद्र द्वारा जो प्रयास किए जा रहे हैं वे समस्याओं को बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं, क्योंकि अधिकाश निर्णय राज्य की बुनियादी जरूरतों व समस्याओं की विविधता को समझे बिना लिए जा रहे हैं। वास्तव में उत्तर प्रदेश अपने आप में अनेक विविधताओं को समाए हुए है। पूर्वी, मध्य, ब्रज, पश्चिमी और बुंदेलखंड, सभी हिस्सों की अपनी जरूरतें व समस्याएं हैं। साफ तौर पर कोई एक हल पूरे राज्य का हल नहीं हो सकता। हर क्षेत्र की समस्याओं का हल उसकी जनसाख्यिकीय और भौगोलिक खासियतों को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। इसके अलावा विकास संबंधी मानकों के आधार पर राज्य के विभिन्न हिस्सों में भारी असंतुलन व अंतर है, लेकिन अफसोस की बात है कि राज्य के भीतर पनपते इन अंतरों को पाटने का कभी भी सार्थक प्रयास नहीं किया गया। इसकी विशालता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की आबादी 8 करोड़ है और अकेले यूपी की आबादी लगभग 20 करोड़ है। दुनिया के सिर्फ पाच देशों की आबादी ही इससे अधिक है।
उत्तर प्रदेश सरकार सूबे की इस विविधता से पूरी तरह से अनजान है। कृषि और शिक्षा अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। शिक्षा की बदहाली को इस बात से समझा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा के मामले में जहा राष्ट्रीय औसत 34 छात्रों पर एक शिक्षक का है वहीं उत्तर प्रदेश में यह औसत 51 है। कृषि की हालत तो और भी बदतर है। राज्य के राजस्व का 36.8 प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता है और 66 प्रतिशत लोग रोजगार के लिए अभी भी कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन किसान और कृषि उपेक्षा के सबसे अधिक शिकार हैं। यूपी देश का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है, लेकिन किसानों को गन्ने की उचित कीमत मयस्सर नहीं है। केंद्र सरकार के ताजा फैसलों से गन्ना उत्पादक किसानों के समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित हो गया है। इससे एक बार फिर साफ हो गया है कि केंद्र गन्ना किसानों और चीनी उद्योग को जंजीरों में जकड़ कर रखना चाहता है। पूरे राज्य के किसान इन दिनों गन्ने की कीमत को लेकर आदोलनरत हैं, कहीं वे अपनी फसल जला रहे हैं तो कहीं आत्मदाह कर रहे हैं। गन्ने की कीमतों पर उत्तर प्रदेश और देश में चल रही राजनीति अंतर्मन को झकझोर देने वाली है। पिछले साल की तरह चालू साल में देश में चीनी का उत्पादन घट गया और यह 150 लाख टन पर आ गया, जिससे चीनी की कीमतें आसमान छूने लगी हैं और उपभोक्ता बेहाल हो रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार गन्ना किसानों को बाजार शक्तियों से अलग रखते हुए उनकी तकदीर के सारे फैसले खुद करना चाहती है। इसका परिचायक केंद्र सरकार का अध्यादेश है। देश के अलग-अलग राज्यों के किसानों और उनकी उत्पादकता को समझे बगैर केंद्र ने गन्ना मूल्य तय करने के लिए एफआरपी व्यवस्था लागू करने की तुगलकी घोषणा कर डाली। केंद्र सरकार ने इस अध्यादेश को तब वापस लिया जब किसानों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया।
बड़ा सवाल यह है कि क्या देश भर के लिए गन्ने का एक दाम तय किया जा सकता है? विषेषज्ञों की मानें तो यह संभव ही नहीं है, क्योंकि गन्ना उत्पादन के लिहाज से देश कई हिस्सों में बंटा है। गन्ना असल में ट्रापिकल जलवायु की फसल है, जिसके लिए दक्षिणी राज्य और महाराष्ट्र उपयुक्त हैं। दक्षिणी राज्यों में गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज 90 से 110 टन तक है, जबकि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा जैसे गैर ट्रापिकल जलवायु वाले राज्यों में इसकी उत्पादकता 43 से 60 टन प्रति हेक्टेयर तक ही है। साफ है कि उत्तरी राज्यों में प्रति हेक्टेयर लागत अधिक बैठती है। जब उत्तरी राज्यों में गन्ने की उत्पादकता दक्षिणी राज्यों के मुकाबले आधी है तो देश भर में एकसमान गन्ना मूल्य निर्धारित करने का कोई औचित्य ही नहीं दिखता है। इन्हीं वजहों से देश के अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी गन्ने का रकबा लगातार कम होता गया। यह विचित्र है कि किसानों के बढ़ते जख्म के बीच उत्तर प्रदेश सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है। राज्य सरकार का ध्यान मूर्तिया लगवाने और पार्क बनवाने पर है। किसानों की समस्याओं और गन्ने की कीमतों को लेकर उसके स्वर अभी भी मद्धिम हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में गन्ना आंदोलन के और अधिक आक्रामक होने से शायद ही कोई इनकार कर सकता
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