एक अप्रैल से भारत में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो गया। प्रधानमंत्री के शब्दों में भारत में नई क्रांति की शुरुआत हो गई। किंतु कानून लागू होने के साथ ही भारत के 18 करोड़ की आबादी वाले राज्य के मुखिया ने घोषित कर दिया कि जब तक इस व्यवस्था का पूरा वित्ताीय भार भारत सरकार वहन नहीं करेगी, तब तक इसे लागू करना असंभव है। उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री को इस तरह की घोषणाएं करने की जल्दी रहती है। सच्चाई यह है कि इस कानून से देश का भाग्य बदल सकता है। खासतौर से उन वर्गो का जिनका प्रतिनिधित्व करने का वह दावा करती हैं। यह दुखद है कि जिस राज्य ने आजादी के बाद इस देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री दिए, आज वह देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में है। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या का अनुपात देश में सर्वाधिक उत्तार प्रदेश में है। शिक्षा के औसत में उत्तार प्रदेश काफी पीछे है।इनके मुताबिक, देश की 65 फीसदी साक्षरता दर के मुकाबले उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर 57 फीसदी है। पूरे देश में 92 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पाते, उसमें से अकेले 30 लाख उत्तर प्रदेश से हैं। उत्तर प्रदेश के लिए इस योजना में 18,000 करोड़ रुपये खर्च आयेगा, जिसमें से 10,000 करोड़ केंद्र देगा। सिर्फ 8,000 करोड़ रुपये राज्य सरकार जुटा पाने में असमर्थता जता रही है। इसके विपरीत उत्तरप्रदेश सरकार करीब 4,500 करोड़ रुपये सिर्फ मूर्तियों और स्मारकों पर खर्च कर रही है।
शिक्षा और चिकित्सकीय सुविधा के क्षेत्र में झारखंड, बिहार की तरह उत्तार प्रदेश भी निचले पायदान पर है। उत्तार प्रदेश की मुख्यमंत्री की देखादेखी देश के अन्य पिछड़े राज्य भी शिक्षा के अधिकार पर होने वाले खर्च से हाथ खड़े कर सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने शिक्षा को राज्य सूची का विषय बनाया था।जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल में शिक्षा में सुधार के लिए डीएस कोठारी कमीशन का गठन किया गया था। इस आयोग ने पड़ोस में ही विद्यालय खोलने और प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य, नि:शुल्क व मातृभाषा में करने की अनुसंशा की। आयोग की अनुसंशाओं को लागू करने के बजाय बड़े पैमाने पर फैंसी स्कूल खुल गए, जिनमें प्रथम कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया गया। भारत सरकार के सैम पेत्रोदा ज्ञान कमीशन ने दर्जा एक से ही अंग्रेजी की अनिवार्यता पर जोर दिया, जिस पर खीझ कर तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह ने इसे अज्ञान कमीशन की संज्ञा दी। इसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा। वह न केवल शास्त्री भवन से बाहर हुए, बल्कि नेहरू परिवार से संबंध रखने वाले जितने भी ट्रस्ट हैं, सभी से चलते कर दिए गए। खानदानी स्वामीभक्ति की दुहाई भी उनके काम न आई। प्रारंभिक शिक्षा को मातृभाषा से दूर रखने में फैंसी स्कूलों का बड़ा योगदान है। इन स्कूलों में नर्सरी में दाखिले को फीस ही लाखों में है। देश के बड़े लोगों में पहले तो अपने बच्चों को इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश कराने की चिंता रहती थी, अब उनमें बच्चे को अच्छे स्कूल में भर्ती कराने की भी होड़ लगी है।
सरकार ने कहा है कि 25 फीसदी गरीब बच्चों का दाखिला नि:शुल्क और अनिवार्य होगा। सरकार अपने इस वचन को कभी पूरा नहीं कर पाएगी। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि पहली कक्षा में दाखिला लेने वाले बच्चों में से आधे आठवीं कक्षा तक स्कूल छोड़कर चले जाते हैं। 2008-09 में पूरे देश में प्राइमरी पढ़ाई में एक करोड़ 34 लाख बच्चे दाखिल हुए, किंतु दर्जा छह से आठ के बीच इनमें से कुल 53 लाख ही पहुंचे। दर्जा पांच के बाद एक-तिहाई और आठ के बाद आधे बच्चे स्कूल से बाहर हो जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा की दोहरी चुनौती सभी बच्चों को स्कूल भेजना और कम से कम दसवीं तक उन्हें स्कूल से पलायन न करने देना है। क्या देश में राज्य सरकारों ने इतने स्कूल बनाए हैं कि उनमें सभी बच्चों समाहित हो सकें? क्या बने हुए सभी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं? इस कानून की मंशा को पूरा करने के लिए स्थानीय निकायों और स्वयंसेवी संगठनों को कठिन परिश्रम करना होगा। गरीब बच्चों के लिए केवल फीस की माफी नहीं, बल्कि दोपहर का भोजन, वस्त्र, पुस्तक के लिए साधन देना भी अनिवार्य है। ऐसी लड़कियों के लिए, जो घरेलू काम के बोझ से स्कूल नहीं जातीं गांव प्रधान और सभासदों को घरेलू विद्यालय संचालित करने चाहिए, जहां दिन में तीन घंटे की पढ़ाई हो और उन्हें प्राथमिक जानकारी दी जाए। इस अल्पकालिक शिक्षा में आने वाली बच्चियों के लिए कुछ आकर्षक योजनाएं हों।
इस घोषणा को महज खानापूर्ति के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत को ज्ञानवान बनाने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसे भारतीय भाषाओं को समाप्त कर अंग्रेजी थोपने के साधन के रूप में इस्तेमाल न किया जाए। भूखा अभिभावक, भूखा बच्चा, भूखा अध्यापक और जर्जर स्कूल क्या शिक्षा की चुनौती को कबूल कर सकेंगे। संभ्रांत लोगों को स्कूल खोलने से रोक कर सरकारी संस्थाओं को गोद लेने को कहा जाए क्योंकि शिक्षा समाज की सबसे बड़ी सेवा है, उद्योग अथवा व्यवसाय की तरह कमाई का साधन नहीं है।
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kya baat hain bhaijaan satya ekdam satya
ReplyDeleteWat a point Sir....
ReplyDeleteUttar Pradesh ka kayakalp In swarthi netaon ke chalte kabhi nahi ho sakta .. jo keval apne vote bank ke liye pareshan ho rahe hai
badlaav
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