Monday, December 21, 2009

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को 1950 में राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग लेने के लिए विदेश जाना पड़ा तो उन्होंने संसद से यह कहते हुए इजाजत मागी कि बहुत प्रयास के बाद भी वह सम्मेलन की तिथि बदलवाने में सफल नहीं हो सके। उन्हें खेद है कि संसद के सत्र के दौरान देश से बाहर जाना पड़ रहा है। संसद के प्रति प्रधानमंत्री, उनके मंत्रियों तथा सासदों में जो निष्ठा थी, उसका लगातार क्षरण होता गया। अब तो महत्वपूर्ण मामलों जैसे महंगाई पर चर्चा के दौरान सदस्यों की न्यूनतम उपस्थिति भी सुनिश्चित नहीं हो पाती। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो अपने अब तक के कार्यकाल में शायद ही संसद के किसी सत्र के दौरान विदेश यात्रा पर न गए हों। यही नहीं, वह दिल्ली में रहते हुए भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर संवाद करने से बचते हैं। दिल्ली में होते हुए भी वह गन्ना किसानों की समस्या पर विपक्ष के साथ वार्ता में शामिल नहीं हुए। उनके 'विदुर' प्रणब मुखर्जी को यह दायित्व संभालना पड़ा। जिस दिन देश 26/11 के शहीदों को श्रद्धाजलि अर्पित कर रहा था, वह अमेरिकी राष्ट्रपति की दावत उड़ा रहे थे और जब लिब्रहान आयोग का प्रतिवेदन सदन में पेश करने की अपरिहार्यता से सरकार जूझ रही थी वह मंत्रिमंडल का नेतृत्व करने के लिए उपस्थित नहीं थे। ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख किया जा सकता है, जब प्रधानमंत्री के स्थान पर 'विदुर' उत्तरदायी बनकर खड़े दिखाई पड़ते रहे हैं।

'इंडिया अनबाउंड' के लेखक गुरुचरण दास ने एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तुलना भीष्म पितामह से की। जिस प्रकार भीष्म पितामह 'धर्म' जानते हुए भी उस पर होने वाले प्रहार पर मौन रहे उसी प्रकार मनमोहन सिंह भी मौन धारण किए हुए हैं। उनके मौन रहने के उदाहरणों की लंबी फेहरिस्त है, चाहे संचार मंत्री राजा का प्रसंग हो या फिर उनके गृहमंत्री चिदंबरम द्वारा लश्करे तैयबा के चार आतंकियों के साथ महाराष्ट्र की एक युवती इशरत जहा के तीन साल पूर्व अहमदाबाद के पास मुठभेड़ में मारे जाने की घटना पर भारत सरकार द्वारा अदालत में दाखिल शपथपत्र का बदला जाना। घटना के तत्काल बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जो शपथपत्र दाखिल किया उसमें तीन मुख्य बिंदु थे। उनका लश्करे तैयबा से संबंध था, उनकी गतिविधियों की पूर्व सूचना सरकार के पास थी तथा घटना की किसी भी अन्य एजेंसी से जाच कराने की आवश्यकता नहीं है। अब परिवर्तित शपथपत्र में पूर्व में दी गई सूचनाओं को 'रूटीन' सूचना बताकर इन तीनों तथ्यों को उलट दिया गया है। उन्होंने जिस दिन नया शपथपत्र 'स्वीकृत' किया उसी दिन सेंट पीटर्सबर्ग से लौटते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधिकारियों ने पत्रकारों से कहा कि इशरत जहा के लश्करे तैयबा से संबंध होने के असंदिग्ध प्रमाण हैं।

क्वात्रोची मामले में सरकार के 'कोई सबूत नहीं' के दावे पर सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह का कथन देखिए, स्विट्जरलैंड की सर्वोच्च अदालत में मुकदमा लड़कर मैं स्वयं सारे सबूत लाया था, जिसके आधार पर क्वात्रोची के खिलाफ रेड कार्नर एलर्ट जारी हुआ और इंग्लैंड के बैंक में जमा उसका चालीस करोड़ रुपया जब्त कर लिया गया था। प्रधानमंत्री ने इस संदर्भ में किस 'धर्म' का निर्वहन किया है, इस पर टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है। सीबीआई ने 12 मुकदमे वापस ले लिए हैं और 21 को वापस लेने का आवेदन कर रही है। क्यों? तीन वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने संसद पर हमले के आरोपी अफजल को मृत्युदंड दिया। उसकी पुनर्विचार याचिका भी खारिज हो गई है और सजा पर अमल न किए जाने पर सर्वोच्च न्यायालय ने 'फासी का सजायाफ्ता सरकार की धरोहर नहीं' कहकर सरकार को 'धर्म पालन' की नसीहत भी दी, लेकिन भीष्म पितामह पर कोई असर नहीं हुआ।

मनमोहन सिंह मिस्त्र के शर्म-एल शेख में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ ऐसा संयुक्त बयान जारी कर आए जिस पर सारे देश का सिर शर्म से झुक गया। संसद में फजीहत हुई। उनके 'विदुर' प्रणब मुखर्जी भी बचाव में कामयाब नहीं हो पाए। निश्चय ही वह भ्रष्टाचार से क्षुब्ध हैं। जब भी कहीं बोलने का अवसर मिलता है तो भ्रष्टाचार को देश का सबसे बड़ा रोग बताते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपी को मंत्रिमंडल में पुन: शामिल कर उसके पुराने विभाग का दायित्व सौंप देते हैं। देश के संसाधनों पर गरीबों के बजाय मुसलमानों का पहला हक बताकर उन्होंने उसी प्रकार का आचरण किया जैसा भीष्म ने शस्त्र उठाकर किया था। महात्मा गाधी की सादगी में उनकी घोषित आस्था है, लेकिन जब उनके मंत्री सरकारी खर्च पर फाइव स्टार होटलों में ठहरे हुए थे, तब उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया। समाचार पत्रों में खुलासे के बाद उनके 'विदुर' प्रणब मुखर्जी को आगे आना पड़ा और 'मवेशीबाड़ा' जैसी अशोभनीय अभिव्यक्ति करने वाला मंत्री उनके पास तक नहीं फटका।
अपने प्रथम प्रधानमंत्रित्वकाल में तेल के खेल मामले में नटवर सिंह को क्लीनचिट देने के बाद त्यागपत्र क्यों और किसके कहने से मागा, इसके ब्यौरे में अब जाने की आवश्यकता नहीं रह गई है क्योंकि उसका खुलासा विस्तार से हो चुका है। एक-एक कर पड़ोसी देश हमारे शत्रु खेमे के प्रभामंडल में जा रहे हैं और हम केवल अमेरिका से गुहार भर कर संतुष्ट हो जाते हैं। और तो और, प्रधानमंत्री कार्यालय से विभागों को जारी निर्देशों को कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा है। तीस नवंबर तक मंत्रालयों से कार्य निष्पादन के बारे में मागी गई रिपोर्ट का किसी ने उत्तर नहीं दिया। मनमोहन सिंह के शासनकाल में सीबीआई को काग्रेस ब्यूरो आफ इमप्लीमेंटेशन की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे दर्जनभर से अधिक संगीन मामले हैं, जिनमें सीबीआई ने अपने पूर्व शपथपत्र के उलट संशोधित शपथपत्र दाखिल किए हैं। उसके इस चलन पर सर्वोच्च न्यायालय ने 'इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकता' जैसी सख्त टिप्पणी भी की है। लेकिन 'भीष्म' का मौनव्रत कायम है।

महंगाई कहा से कहा पहुंच गई,
पृथकतावादियों की अनियंत्रित हरकतों ने आम आदमी को कानून अपने हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया है, आए दिन ट्रेन, बस, सरकारी भवनों को आग लगा देने की घटनाओं को अंजाम देने में लोग हिचक नहीं रहे हैं। क्यों? क्योंकि अपराध के लिए दंड पाने के रास्ते में राजनीतिक हानि-लाभ का लेखा-जोखा प्रक्रिया को या तो निरस्त कर देता है और यदि न्यायालय अड़ जाता है तो उसे बाधित कर ऐसे व्यक्तियों को वीआईपी की श्रेणी में रखकर विशेष सुविधा दी जाती है। गुरुचरणदास ने मनमोहन सिंह को सिर्फ भीष्म पितामह ही कहा है, लेकिन देखा जाए तो उनमें भीष्म के साथ-साथ धृतराष्ट्र के गुण भी हैं। अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें उन्हें दुर्योधन का दोष नहीं दिखाई पड़ता, और 'पांडवों' के लिए दुखी रहकर भी उनको वनवास दिए जाने पर मौन रहते हैं। महाकवि तुलसीदास ने भक्ति में सेवक भावना को सर्वोपरि बताया है। यह कहना कठिन है कि मनमोहन सिंह ने रामचरित मानस पढ़ी है या नहीं, लेकिन उनके भीतर सेवक भावना की गहरी पैठ है। धर्म का मर्म जानने मात्र से धर्मनिष्ठ नहीं हुआ जाता। धर्माचरण करने से ही धर्म के प्रति निष्ठा का सार्थक परिणाम निकलता है। दायित्व के निर्वहन में उनके आचरण से अधर्म को ही बल मिल रहा है।

Sujanya...........

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