खुशी हद से बढ़ी तो आ गए मुस्कान को आंसू
कहीं कोई लुटा तो आ गये ईमान को आंसू
चढ़ाकर लूट की संपत्ति तुमनें जीत माँगी तो
पुजारी मुस्कराया आ गये भगवान को आंसू ।
पराई पीर का प्याला तुम्हे पीना नहीं आया
मनुजता का फटा आंचल तुम्हे सीना नहीं आया
भले ही तुम फरिश्तों की तरह बातें करो लेकिन
अभी तक आदमी बनकर तुम्हे जीना नहीं आया।
तुम्हारे पास बल है बुद्धि है विद्वान भी हो तुम
इसे हम मान लेतें हैं बहुत धनवान भी हो तुम
विधाता वैभवों के तुम इसे भी मान लेते हम
मगर यह बात कैसे मान लें इंसान भी हो तुम।
लगा ली गले से नफरत मुहब्बत तक नहीं पहुंचे
बसाया झूठ को दिल में सदाकत तक नहीं पहुंचे
सितारों तक तुम्हारा यह सफर किस काम का जब तुम
अँधेरे में सिसकती आदमियत तक नहीं पहुंचे ।
( रचना - स्व.पंडित रूप नारायण त्रिपाठी जी )
अब दिल भर गया है इन बाबाओं से , माफ़ कीजियेगा ये वो बाबा नहीं जो दाढ़ी मूंछ वाले और अखाड़ो में रहने वाले होते है ये वो बाबा है जो संसद भवन में रहते है, देश के युबराज कहे जाते है, आम आदमी की झोपडी मेक्झाते है लेकिन आम आदमी, दलित बाकि दिन क्या खाता है या इस महंगाई में खली पेट सोता है, इसका ख्याल नहीं आता..
अब तो यही दिमाग में आत है की..
न हयात चाहिए न आफताब चाहिए,
आवाम को तसल्ली नहीं, जवाब चाहिए
जलती आँखे और भूखे पेट कह रह "अजित"
हिंदुस्तान को एक नया इन्कलाब चाहिए
Thursday, February 25, 2010
Monday, February 22, 2010
नक्सलियों का विस्तार
अगर सरकार वाकई में नक्सली समस्या से निपटना चाहती है तो देश के गरीब चालीस करोड़ जनता के हितों को लेकर फैसला ले। नहीं तो नक्सली दिल्ली में भी आकर बैठ जाएंगे। लोगों का जीना हराम है। आमदनी है नहीं खर्चा काफी है। दाल और आटा ही लोगों को नहीं मिलेगा तो वे क्या करेगा। भीख मांगेगा या हथियार उठाएगा। देश में कारपोरेट को अमीर करने की जो नीति मनमोहन सिंह ने बनायी है, उससे देश में स्थिति और भयानक होगी। इस देश में गरीब को रोटी नहीं मिलती। दाल खरीदना जाता है तो कमाई से चार दाने दाल आता है। इलाज करवाने जाता है तो चार दवाई खरीदने के लिए जेब में पैसे नहीं है।सरकार ईमानदारी से गरीबों के हितों में काम करे, नक्सलियों का विस्तार खुद ही रुकेगा।
Tuesday, February 16, 2010
फिल्मी नर-पशु
आपने कभी देखा है, कि जापानी समारोह में सभी चीनी बोलें और जापानी भाषा की हंसी उड़ाएं? या फ्रांस के समारोह में अंग्रेजी बोली जाए और फ्रांसीसी भाषा की खिल्ली उड़ाई जाए? दुनिया का कोई देश अपनी भाषा की उस तरह खिल्ली नहीं उड़ाता जिस तरह भारत के फिल्मोदद्योग से जुड़े व्यक्तियों द्वारा उड़ाया जाता है।
पिछले दिनों हुए “स्टार स्क्रीन अवार्ड” में कुछ ऎसा ही नजार देखा जो किसी भी भारतीय का सिर शरम से झुकाने के लिए काफी था, सिवाय “हिन्दी फिल्मों” से जुड़े लोगों का।
मंच पर साजिद खान “प्रोफेसर परिमल” बन कर शुद्ध हिन्दी बोल रहे थे और उनके साथ खड़ी अभिनेत्री उनकी हिन्दी को कोस रही थीं, अंग्रेजी में। और उनके साथ ठहाके लगा रहे थे दर्शक के रूप में बैठे “हिन्दी” अभिनेता और अभिनेत्रियां।
शर्म की इंतिहा तब हुई जब गायिका श्रेया घोषाल अपना पुरस्कार लेने मंच पर आईं और हिंदी में धन्यवाद-भाषण दोहराने के आग्रह पर ऎसी कठिनाई से, ऎसे अटक-अटक कर दो पंक्तियां हिंदी में बोल गईं जैसे शुद्ध अंग्रेजों की औलाद हैं और हिंदी बोल कर भारतीयों पर एहसान कर रही हैं।
बचपन में राष्ट्रभक्ति की एक कविता पढ़ी थी कि जिसे अपने देश और राष्ट्रीयता पर अभिमान नहीं, वह इंसान नहीं, नर- पशु समान है।
उस फिल्म समारोह में ऎसे ही नरपशु भरे पड़े थे। न पढ़े, न लिखे, दिखावे की ज़िंदगी जीने वाले ये नर-पशु अन्य देशवासियों से अपनी कमतरी छिपाने के लिए विदेशी भाषा का आश्रय लेते हैं।
जरा कस कर एक जूता इनके सिर पर मारें तो चिल्ला पड़ेंगे अपनी मातृभाषा में।
पिछले दिनों हुए “स्टार स्क्रीन अवार्ड” में कुछ ऎसा ही नजार देखा जो किसी भी भारतीय का सिर शरम से झुकाने के लिए काफी था, सिवाय “हिन्दी फिल्मों” से जुड़े लोगों का।
मंच पर साजिद खान “प्रोफेसर परिमल” बन कर शुद्ध हिन्दी बोल रहे थे और उनके साथ खड़ी अभिनेत्री उनकी हिन्दी को कोस रही थीं, अंग्रेजी में। और उनके साथ ठहाके लगा रहे थे दर्शक के रूप में बैठे “हिन्दी” अभिनेता और अभिनेत्रियां।
शर्म की इंतिहा तब हुई जब गायिका श्रेया घोषाल अपना पुरस्कार लेने मंच पर आईं और हिंदी में धन्यवाद-भाषण दोहराने के आग्रह पर ऎसी कठिनाई से, ऎसे अटक-अटक कर दो पंक्तियां हिंदी में बोल गईं जैसे शुद्ध अंग्रेजों की औलाद हैं और हिंदी बोल कर भारतीयों पर एहसान कर रही हैं।
बचपन में राष्ट्रभक्ति की एक कविता पढ़ी थी कि जिसे अपने देश और राष्ट्रीयता पर अभिमान नहीं, वह इंसान नहीं, नर- पशु समान है।
उस फिल्म समारोह में ऎसे ही नरपशु भरे पड़े थे। न पढ़े, न लिखे, दिखावे की ज़िंदगी जीने वाले ये नर-पशु अन्य देशवासियों से अपनी कमतरी छिपाने के लिए विदेशी भाषा का आश्रय लेते हैं।
जरा कस कर एक जूता इनके सिर पर मारें तो चिल्ला पड़ेंगे अपनी मातृभाषा में।
Friday, February 12, 2010
महाराष्ट्र के नमूने नेता और अभिनेता
आज संजय निरुपम नाम के एक जमूरे को एनडीटीवी पर आँखे चढाते और चिल्लाते हुए देखा की आज शिवसेना के गुंडों से फिल्म देखने वालो को बचायेंगे..शाहरुख़ खान के घर से लेकर सारे सिनेमा हाल तक हजारो पुलिस वालो का पहरा लगा हुआ था..कुछ ऐसा ही कर्फ्यू राहुल बाबा के मुंबई प्रवास के दौरान था ..
लेकिन मै इसी नेता से पूछना चाहता हु (जो की कभी शिवसेना क फायरब्रांड नेता रह चूका है ) की ये तेजी, ये सरकशी ये लोमड़ी जैसी आँखे तब कहा छुपी पड़ी थी जा शिवसेना और मनसे के गुंडों से लेकर मुंबई पुलिस तक उत्तर भारतीयों का खून बहा रहे थे.
कहा छुपी पड़ी थी ये पुलिस, तब भी तो यही पुलिस थी और यही सरकार , क्यों नहीं बचाया जा सका उन बेगुनाहों को जो एक नौकरी पाकर परिवार क भला करने गए थे, जिनकी आँखों में विकास क सपना था, उन्हे मनसे के गुंडों ने पीट पीट कर मार डाला..
कहा था ये संजय निरुपम नाम का गुंडा जब हजारो खोमचे और पता नहीं कितनी टैक्सिया तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर दी गयी..
कहा था ये नेता जब नाशिक से पुणे तक उत्तर भारतीयों की उत्पीडन क एक दौर चला और किसी भी उत्तर भारतीय नेता ने चाहे वो निरुपम रहा हो, चाहे वो कृपाशंकर सिंह या चाहे और भी कोई , किसी ने आवाज नहीं उठाई..
आज मै शाबाशी देता हु सरकार को की सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किये गए लेकिन क्या इससे कांग्रेस अपने दमन क वो खून कभी साफ़ कर सकेगी..
लेकिन मै इसी नेता से पूछना चाहता हु (जो की कभी शिवसेना क फायरब्रांड नेता रह चूका है ) की ये तेजी, ये सरकशी ये लोमड़ी जैसी आँखे तब कहा छुपी पड़ी थी जा शिवसेना और मनसे के गुंडों से लेकर मुंबई पुलिस तक उत्तर भारतीयों का खून बहा रहे थे.
कहा छुपी पड़ी थी ये पुलिस, तब भी तो यही पुलिस थी और यही सरकार , क्यों नहीं बचाया जा सका उन बेगुनाहों को जो एक नौकरी पाकर परिवार क भला करने गए थे, जिनकी आँखों में विकास क सपना था, उन्हे मनसे के गुंडों ने पीट पीट कर मार डाला..
कहा था ये संजय निरुपम नाम का गुंडा जब हजारो खोमचे और पता नहीं कितनी टैक्सिया तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर दी गयी..
कहा था ये नेता जब नाशिक से पुणे तक उत्तर भारतीयों की उत्पीडन क एक दौर चला और किसी भी उत्तर भारतीय नेता ने चाहे वो निरुपम रहा हो, चाहे वो कृपाशंकर सिंह या चाहे और भी कोई , किसी ने आवाज नहीं उठाई..
आज मै शाबाशी देता हु सरकार को की सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किये गए लेकिन क्या इससे कांग्रेस अपने दमन क वो खून कभी साफ़ कर सकेगी..
Thursday, February 11, 2010
अपराध या सिस्टम के खिलाफ जंग!
उत्सव का आक्रोश देखकर लगा कि उत्सव में चेतना अभी मरी नहीं है। रही बात उत्सव के आक्रोशित होने की तो, ये सहजवृत्ति है। नारी शक्ति द्रौपदी के अपमान की ही तो बात थी। एक रजस्वला स्त्री जिसे दु:शासन ने वस्त्रहीन करके दुर्योधन की जांघ पर बिठाने का प्रयास मात्र किया और इतना बड़ा युद्ध महाभारत हो गया। जिसमें लाखों योद्धाओं का खून बह गया। आज सैकड़ों बालाएं रोज लूटी जाती हैं, लेकिन शक्ति पुत्रों में से किसी एक का भी खून नहीं खौलता। जैसे उसके रक्त का शीत ज्वर हो गया या उनकी चैतन्यता को काठ मार गया। क्या स्त्री शक्ति इसी तरह लूटी जाएगी और हम उसमें सहभागी बनेंगे? अथवा देखते रहेंगे? हो क्या गया है हमारे एहसासों को। कहां गया हमारा ईश्वरीय भाव। मेरी तो सोच यह है कि राष्ट्र को नारी शक्ति की महत्ता समझनी होगी। यह चेतना जब उत्सव जैसे युवाओं के अर्न्त:मन को झकझोरती है तब राठौड़ जैसे लोगों के साथ तो इससे भी बुरा होना चाहिए।
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