Sunday, January 24, 2010

मेरा मन इन मूर्तियों को ढहाने का होता है।

गांव-समाज में एक देशी कहावत अकसर सुनने को मिल जाती है फलनवा बड़ा आदमी रहा। अपने जीते जी मरे के बादौ क इंतजाम कई गवा। काहे से कि केहु ओकरे करै वाला नहीं रहा। मायावती भी कुछ गांव-समाज के उसी बड़े आदमी जैसा बर्ताव कर रही हैं। लेकिन, मामला सिर्फ ये नहीं है कि मायावती ने किसी से प्रेम नहीं किया-शादी नहीं की तो, उनकी फिकर करने वाला भी कैसे होगा। दरअसल, ये मायावती तो, उन करोड़ों लोगों की उम्मीद थी जिन्हें लगता था कि ये हमारे लिए बहुत कुछ करने के लिए शादी-ब्याह नहीं कर रही। अपना जीवन-करियर सब त्याग दिया।

ये वो मायावती थी जिसकी मूर्ति कहीं नहीं थी लेकिन, यूपी का करोड़ो दबा-कुचला अधिकारविहीन पीछे डंडा-झंडा लिए गर्मी-पानी-जाड़ा में मायावती के नाम का झंडा बुलंद करता घूम रहा था। फिर मायावती को ये करने की क्यों सूझी। इन करोड़ो लोगों पर मायावती को भरोसा क्यों नहीं रहा कि ये उनके मरने के बाद भी उनका नाम उसी बुलंदी पर रखेंगे जहां आज बिठा रखा है। यही वो लोग थे जो, मायावती के बनाए अंबेडकर पार्क में इकट्ठा होते हैं। एक दिन की रोजी-रोटी त्यागकर लखनऊ पहुंचते हैं। मनुवाद की खिलाफत में मायावती के साथ खड़े होने के लिए गंगा का किनारा छोड़कर लखनऊ के अंबेडकर पार्क में बनी नहर को भीमगंगा बना देते हैं। गंगा से पवित्र मानकर उसी पानी से आचमन करते हैं।

अब देखिए मायावती क्या कर रही हैं। मायावती इन अधिकार विहीन लोगों को अधिकार दिलाने की मृगमरीचिका दिखाकर सत्ता में आ गईं। अधिकार छीनने वालों की जिस टोली का ढिंढोरा पीटकर ये सत्ता में आईं सत्ता में आते ही उन्हीं लोगों को मंच पर खड़ा कर दिया। और, उन अधिकार विहीन लोगों से कहा- ये आपके मसीहा हैं इन्हें अधिकार दीजिए ये, आपके अधिकारों के लिए लड़ें

अब उन भीमगंगा में आचमन करनेवालों को लगता है कि जैसे ठगे गए हों। लखनऊ में खड़े 60 हाथी इन पर भार बन रहे हैं। बहनजी और उनके साथ दूसरे अधिकार विहीनों के लिए लड़ने वाले नेताओं की मूर्तियों पर सिर्फ लखनऊ में 2700 करोड़ रुपए खर्च हो गए। और, कहते हैं न कि हाथी पालने से ज्यादा उसे खिलाना भारी पड़ता है। कुछ ऐसा ही है। यूपी के अधिकार विहीनों की मेहनत की कमाई का 270 करोड़ रुपए हर साल सिर्फ इन पत्थर की मूर्तियों और हाथिय़ों को खिलाने में (मरम्मत) बरबाद होगा।

गांव-गिरांव में इन अधिकार विहीनों की जमीन का पट्टा नहीं हो पा रहा है। रत्ती-धूर जमीन में ये परिवार चला लेते हैं। जमींदार टाइप के लोग इनकी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं। इनको गांव की जमीन दिलाने का वादा करने वाला मायावती अब यूपी की सबसे बड़ी जमींदार हो गई है। जमींदार है इसलिए जमींदारी भी कर रही है। सिर्फ लखनऊ में 413 एक़ड़ की इस जमींदारी कब्जे की जमीन पर पत्थर के हाथी, पत्थर की मायावती, पत्थर के कांशीराम और पत्थर के दूसरे नेता खड़े हैं जो, जमींदारी मिटाने की लड़ाई लड़ रहे थे। पूरा का पूरा वो आंदोलन पत्थर होता दिख रहा है जो, नोएडा के एक गांव की अधिकार विहीन सामान्य महिला को कुछ महीने पहले तक देश की प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने की जमीन बना चुका था।

और, ये आंदोलन खत्म होगा ऐसा नहीं है। सिर्फ अधिकार विहीनों की ही बात क्यों। मायावती की जिस सोशल इंजीनियरिंग ने यूपी में सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए थे। वो, भी टूटेगा। सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय नारा भर बनकर रहा गया है। मायावती के नजदीकी हिताया और सिर्फ उन्हीं का सुखाय। और, सबको सिर्फ इन पत्थरों में ही अपना सुख खोजना होगा। 413 एकड़ जमीन और 2700 करोड़ रुपए इतनी बड़ी रकम तो, थी ही कि अधिकार विहीनों (5 करोड़ 90 लाख लोग इस प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे हैं) के अधिकार कुछ तो मिल ही जाते।

बात सिर्फ लखनऊ की ही नहीं है। मायावती अपने आखिरी निशान हर जगह छोड़ देना चाहती हैं। दिल्ली से नोएडा घुसते ही लखनऊ जैसे ही गुलाबी राजस्थानी पत्थरों की ऊंची दीवार दिखने लगती है। करीब 3 किलोमीटर का ये पूरा क्षेत्र जंगल था-हरा-भरा था। इन पत्थरों की ऊंची दीवारों के बीच में पत्थर के हाथी और मूर्तियां हैं जो, गर्मी की चिलचिलाती धूप में चिढ़ पैदा करते हैं। मेरा मन इन मूर्तियों को ढहाने का होता है।

नोएडा के दूर-दराज गांवों में भी लोगों के रहने के लिए घर मिलना मुश्किल है। इनता महंगा कि आम आदमी तो, सिर्फ देखते हुए जिंदगी बिता लेता है। ये पत्थर के जंगल वहां तैयार हो रहे हैं जहां, ठीक सामने की जमीन पर करोड़ो के बंगले हैं। मायावती का मनुवाद विरोध एक चक्र पूरा कर चुका है। करोड़पति बंगले वाले और मायावती और उनके पहले के मनुवाद विरोध नेता पत्थर के ही सही लेकिन, पड़ोसी हैं। आमने-सामने रहते हैं। खैर, मैं भी यूपी में ही रहता हूं इसलिए ज्यादा हिम्मत नहीं करूंगा।

Friday, January 22, 2010

आज समाजवाद के शालाका पुरुष चले गये, आज एक वो नेता जो सिर्फ़ नाम से ही नही बल्कि मनसा, वाचा, कर्मना छोटे लोहिया थे, आज श्री जनेश्वर मिश्र जी चले गये..और सुनकर मॅ अपने दिल के दर्द और आँखो के आसूओ को छुपा नही पाया.भारतीय राजनीति मे बड़े बड़े विचारक हुए , लेकिन जो जितना बड़ा विचारक बना जनता से उसकी पहुच उतनी ही दूर होती ग...यी..लेकिन स्वर्गिया श्री जनेश्वर जी इसके अपवाद थे..
इनका प्रशनशक तो मई शूरू से थे लेकिन बलिया उपचुनाव का इनका वाक्य की " ये चुनाव नीरज शेखर बनाम विनय शंकर नही बल्कि चंद्रशेखर बनाम हरिशंकर है " ने जब चुनावी फ़िज़ा ही बदल दी और गुणडई और दबँगाई के नंगे नाच के साथ सत्ता के पूर्णरूपेण दुरुपयोग के बाद भी जब नीरज शेखर जी जीते तो मुझे लगा की शब्दो का आप सचमुच जनता की नब्ज़ पर पकड़ रखते थे..

आज सिर्फ़ समाजवादी पार्टी ने ही नही बल्कि अल्लहाबाद ने भी अपना एक बहुत ही कीमती मोटी खो दिया, हिन्दुस्तान के लिए ये एक अपूरणिया क्षति है..बड़ी इच्छा थी या यू कहे की प्यास थी की भारत जाकर इनके सान्निंध्य का सुख प्राप्त करूँगा और गयाँ के चार मोटी लूँगा लेकिन शायद ईश्वर को ये मंजूर नही था और यही जीवन है इन्ही शब्दो के साथ की ईश्वर इन्हे फिर से इन्ही तेजस्वी विचारो के साथ हमारे बीच भेजे और आप फिर से आम जनता की लड़ाई लड़े----------आपका प्रशन्श्क

Saturday, January 16, 2010

अखबार से जिन्हें आता है बुखार

अगर अाप एक अच्छे डेमोकेट्र हैं और जनतंत्र में आपका भरोसा है तो चाहेंगे कि आपके कामकाज और आचरण की समीक्षा-आलोचना करने वाला कोई मीडिया जरूर हो-अखबार हो। वह इतना निर्भीक भी हो कि कमजोरियों पर उंगली रखता हो। लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम करने वाला, खास तौर पर अगर वह सत्ता पक्ष में है तब तो लोकतंत्र का उससे कुछ ज्यादा ही तकाजा बनता है कि वह अखबार को अपनी सरकार की चालढाल का आईना बनाए। अपने शासन-प्रशासन की कमजोरियों, खामियों और स्वेच्छाचारिता को जानता रहे और उनका इलाज भी करे। आखिर चौथे खंभे की महत्ता और मर्यादा भी तो यही है। लेकिन अगर लोकतंत्र को पाखंड बना दिया जाए और निहित स्वार्थ व लोभ-लाभ के पुतले बने दरबारियों को ही आंख-कान बना लिया जाए, तब तो वही होगा जो उत्तर प्रदेश के मौजूदा निजाम में हो रहा है। अखबार से जिन्हें बुखार आता हो, वे चाहे और कुछ भी हों, लोकतांत्रिक नहीं हो सकते। सर्व समाज तो छोड़िए ऐसे लोग किसी समाज के लायक नहीं हो सकते। तानाशाही मिजाज रखनेवालों को भला समाज और लोकतंत्र से क्या लेना-देना। शासन-प्रशासन के कारनामों को बेबाक ढंग से लगातार उजागर करने वाले हिन्दी दैनिक डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के चेयरमैन व प्रबंध संपादक डॉ. निशीथ राय को लखनऊ विश्वविालय स्थित रीजनल सेंटर फॉर अर्बन एंड इन्वायरमेंटल स्टडीज के निदेशक के नाते आवंटित सरकारी आवास उनकी गैर-हाजिरी में जिस तरह खाली कराया गया, वह सरकार की लाजवाब कारस्तानी की एक काली नजीर के रूप में ही सामने आई है। भारी पुलिस और पीएसी बल लगाकर जिस तरह मकान को घेरने के बाद सम्पत्ति विभाग के अभियंता, अफसर और अमला लगभग शाम के वक्त घर में घुसा और भारी अफरातफरी मचाते हुए टूट-फूट के साथ घर का सामान बाहर फेंककर मकान को सील किया, उसे बर्बर कार्रवाई के सिवा क्या कहा जा सकता है? सील किए गए मकान में बिजली जल रही है और अगर शॉटसर्किट हो जाए और मकान समेत उसमें बाकी बचा सामान नष्ट हो जाए तो इसकी जवाबदेही किस पर होगी? शासन-प्रशासन के ऊपरी तल से जब अराजकता होती है तो वह हर स्तर पर ही नहीं, नीचे तक जाती है। इसलिए अगर आज अराजकता का ही राज है, तो इसकी वजह खुद समझी जा सकती है। क्या अखबार निकालना गुनाह है? क्या सच्चाई का साथ देना गुनाह है? क्या इस तरह की अराजक कार्रवाई से लोकतंत्रवादियों का मनोबल तोड़ा जा सकता है? ठीक ही लिखा है दुष्यंत कुमार ने-

तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए

A narrow escape...

अभी अभी घर आया हु, और सबसे पहले गुरु महाराज परिवा राउर आप चाहने वालो का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा की पता नहीं किसकी किस्मत से आज यहाँ सही सलामत हूँ..दोस्तों लोग मौत को लेकर तमाम तरह की बाते करते है, तमाम कहानिया सुनते है , सुनकर मजा भी आता है और कभी कभी मुह से निकल भी जाता है की मै "मौत से नहीं डरता" लेकिन सचमुच मौत से सामना होने पर कैसा लगता है मुझे आज महसूस हुआ..
आज मै और मेरे मित्र सोहेल भाई ने कुछ काम से पैरिस से उत्तरी फ्रांस के एक कसबे में जाने का प्रोग्राम बनाया, हमने सुबह ७ बजे से अपना सफ़र शुरू किया , जबकि सडको पर अभी काफी अँधेरा था और लोग बाग़ अपने काम पर जाने की जल्दी में दिख रहे थे, पैरिस में तापमान ६ डिग्री के आस -पास था जो की पिछले कई दिनों की तुलना माँ काफी सुहावना था, हमने कार गरम की और बहुत ही खुले मौसम में निकल गए, लेकिन जैसे ही पैरिस से आगे बढे मौसम बदलने गया , कोहरा घना होता गया , कसबे आने पर कोहरा थोडा कम रहता और फिर बढ़ जाता , लेकिन जैसे की फ्रांस के लोगो को कानून पालन के लिए आस-पास पुलिस की मौजूदगी की जरुरत नहीं होती तो सफ़र अच्छे से चलने लगा, हमने दुरी कम करने के लिए नेशनल रुट लिया, और एक जगह रुक कर एक खुबसूरत फ्रेंच लड़की के यहाँ कैफे पीकर आगे बढे , शहर से थोडा आगे बढे न पर हमने एक रोड पकड़ी जहा की अधिकतम गति सीमा १३० किमी/ घंटे थी..बहुत ही जल्दी कोहरे और ठण्ड के बावजूद (पैरिस से थोडा सा बढ़ते ही तापमान घटने लहगा और फाइनली १ डिग्री हो गया..) हमने जल्दी ही १०० से ज्यादा किमी का सफ़र तय कर लिया, फिर जंगली इलाका शुरू हो गया लेकिन गाडियों क गति ११० से १२० ही थी..इसी बीच जंगल में कुछ दिखा और कुछ देखने में सोहेल भाई का ध्यान सेकंड के कुछ हिस्सों के लिए बटा और हमारी गाड़ी सीधे कच्ची सड़क पर आ गयी और १२० की स्पीड में ब्रेक लगने पर और फिसलते हुए खाई और जंगलो की तरफ जाने लगी..फिर हमारी आँखे तो खुली रही , लेकिन हमारे दिलाग बंद हो गए, क्या हुआ , कैसे हुआ और कैसे ब्रेक लगा कुछ पता नहीं चला और गाड़ी कच्ची सड़क से पूरी आवाज़ में चीखते हुए एक अर्धचन्द्राकार आकर बनती हुई रोड पर आअकर खड़ी हो गयी और असली खतरा अब , पिच्छे से १०० से ज्यादा की स्पीड में गाडियों की लाइन लगी हुई थी और अगर इश्वर की कृपा न होती और पीछे कोई बड़ी गाड़ी यह ट्रक होती तो हमें एक बहुत ही बुरी मौत से कोई नहीं bacha पता..लेकिन पीछे एक मेडिकल की गाड़ी थी उन्होने रोक कर सारा त्रफ्फिक रोक दिया lekin..उन कुछ सेकेंड्स में पूरी जिंदगी, सारा परिवार, आँखों के सामने घूम गया, लगा भगवान आज आपने नयी जिंदगी दी है...आज अहसास हुआ की सचमुच जिंदगी कितनी अनमोल होती है अहसास तब होता है जब ये छोटने लगती है...इन्ही शुभकामनाओं के साथ की इश्वर इसी तरह सबकी मदद करे....आपका -अजित

Thursday, January 14, 2010

विधान परिषद के चुनावी नतीजो ने एक बात फिर दिखाया की कैसे बाहुबल, सत्ता तंत्र और भ्रष्टतंत्र के सामने सोया हुआ जनतंत्र हार जाता है..या यू कहू की कुचल जाता है, लेकिन इसके साथ ही एक बात और साबित हुई है की भले ही मीडीया या स्वघोषित राजनैतिक विश्लेषक जो भी भौकें अगर उत्तर प्रदेश मे बसपा को कोई टक्कर दे सकता है तो वो सपा ही है,

और जिस तरह से सरकारी अधिकारियो को पालतू ....बना दिए जाने के बाद भी जीत का जो अंतर रहा तथा जिस तरह २५ से ज़्यादा जगहो पर पार्टी ने दूसरा स्थान पाया उससे साबित होता है की सपा मे जनता का विश्वास अब भी है..
भारतीय राजनीति के युवराज को उनके सिपहसालार कितनी गंभीरता से लेते है ये भी दिख गया इन चुनावों मे, बसपा विरोध कीबातों के बावजूद कई जगहो पर क्षेत्रीय मठाधिशो ने पार्टी के प्रत्याशी ना उतार कर बसपा को सहयोग किया, साबित हो गया की या तो कांग्रेस और बसपा नूरा कुश्ती खेल रहे है या तो राहुल गाँधी की बतो का पार्टी मे एक गुंडे नेता प्रोमोद तिवारी और मुहफट बेनी वर्मा के सामने नही चलती..अगर ऐसा नही है तो कांग्रेस नैतिक साहस दिखाए और इनके खिलाफ कार्यवाई करे जो की संभव ही नही है...

जिस तरह के गुण्डों के लिए कमिश्नर से लेकर आईजी तक और सिपाही से लेकर लेखपाल तक ने सरकारी वफ़ादारी दिखानेमे सर्वाधिक वफ़ादार कहे जाने वाले जानवर को भी पीछे छोड़ दिया, और जिस तरह गुंडे माफियाओ ने प्रदेश मे अपहरण और पंचायत प्रतिनिधियो की हत्या तक करने मे संकोच नही किया ये स्पष्ट संकेत है की अगर उत्तर प्रदेश नही जगा तो आने वाला वक़्त घरो मे भी व्यक्ति सुरक्षित नही होगा..
...
अब जनता जान चुकी है की उनकी लड़ाई ना तो कांग्रेस और ना भाजपा के बस की है, बस समाजवादी पार्टी को पुनरावलोकन और आत्मनिरीक्षण के बाद जनता दरबार मे जाने की ज़रूरत है..जिस दिन सेंट्रल पोलीस के नीचे चुनाव हुए बसपा सरकार की चूले हिल जाएँगी.

Monday, January 4, 2010

बसपा पर नकली बसपा होने का आरोप

मनोहर आटे की पुकार पर बामसेफ-बसपा से जुड़े पुराने साथी सक्रिय हो गए हैं। वे मायावती को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अध्यक्ष पद से हटाने या वैकल्पिक पार्टी बनाने जैसे तमाम सुझावों पर विचार कर रहे हैं। इस बाबत बामसेफ व कांशीराम से जुड़े पुराने लोगों के बीच बैठकों का दौर जारी है।

गत 15 दिसंबर को दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक बैठक हुई। अगली बैठक कुछ ही दिनों में बंगलौर में होनी है। बैठकों का यह सिलसिला `मायावती हटाओ, मिशन बचाओ´ अभियान का हिस्सा है। फिलहाल इसकी कमान मनोहर आटे के हाथों में है। दिल्ली की बैठक उन्हीं की अध्यक्षता में हुई थी। जानने वाले जानते हैं कि बामसेफ इनके दिमाग की ही उपज था।

हालांकि, अब वे आगे निकल चुके हैं। अपने पुराने साथियों के साथ मिलकर बसपा से अलग विकल्प तलाश रहे हैं। लेकिन, इस अभियान में उत्तर प्रदेश का कोई पुराना साथी उनके साथ नहीं दिख रहा है। यह अभियान का वह पक्ष है, जिसको लेकर सवाल उठ रहे हैं। खैर, जो भी हो, उन्होंने मायावती के खिलाफ एक मोर्चा तो खोल ही दिया है। यहां बैठक में हिस्सा लेने आए बसपा के पूर्व सांसद हरभजन सिंह लाखा ने कहा कि हमारा विरोध मायावती के खिलाफ नहीं है। लेकिन बहुजन समाज बनाने के लिए जिस आंदोलन की शुरुआत `बामसेफ´ से हुई थी, उसका मायावती ने सत्यानाश कर दिया। सर्वजन समाज के नाम पर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को हवा दे रही है। बहुजन समाज अब उनके लिए महत्व की चीज नहीं है। ऐसी स्थिति में विकल्प की तलाश जरूरी है। उन्होंने अपने पुराने साथियों को संबोधित करते हुए कहा, “हमारा मिशन यह नहीं था कि हम राज करें। हमारा मिशन तो यह था कि लोगों को बता दें कि यह समाज जाग गया है।”

देश के अन्य राज्यों से बैठक में हिस्सा लेने आए लोगों ने भी मायावती के सर्वजन समाज के फार्मूले से अपनी असहमति जाहिर की। साथ ही बहुजन समाज यानी अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए नए राजनीतिक विकल्प की बात दोहराई।

दक्षिण भारत यानी कर्नाटक से आए करीब 70 वर्षीय ए.एस. राजन ने कहा, पूरे देश में बहुजन मुवमेंट स्थिर हो गया है। इस समाज का बड़ा तबका खाना, कपड़ा, आवास व शिक्षा के अभाव में कष्टदायक स्थिति में है। दूसरी तरफ देखने में आ रहा है कि उनके नाम पर करोड़ों रुपए की लूट मची है। इसलिए एक बहुउद्देशीय आंदोलन की जरूरत है। उन्होंने मायावती की बसपा पर नकली बसपा होने का आरोप लगाया और कहा, हम असली लोग हैं। अब हमें ही मोर्चा संभालना होगा।

आटे ने कहा, हम लोग तो बनाने वाले लोगों में हैं। बामसेफ बनाया। डीएस-4 और बसपा बनाया। क्या हुआ, यदि कुछ लोगों ने गलत मंशा से इस पर कब्जा कर लिया। लेकिन, अब समय आ गया है कि कुछ नया किया जाए ताकि हम बाबा साहेब आंबेडकर के मिशन को पूरा कर सकें। अब देखना यह है कि उत्तर प्रदेश की जमीन से दूर रहकर वे पुराने अनुभवी लोग मायावती से निपटने का कौन-सा नुस्खा अपनाते हैं।

बीते जमाने की बात हुई रेल सुरक्षा जीवन रक्षा

भारत का रेल तंत्र विश्व में सबसे बडे रेल तंत्रों में स्थान पाता है। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों द्वारा अपनी सहूलियत के लिए बिछाई गई रेल की पांतों को अब भी हम उपयोग में ला रहे हैं। तकनीक के नाम पर हमारे पास बाबा आदम के जमाने के ही संसाधन हैं जिनके भरोसे भारतीय रेल द्वारा यात्रियों की सुरक्षा के इंतजामात चाक चौबंद रखे जाते हैं।

सदी के महात्वपूर्ण दशक 2020 के आगमन के साथ ही रेल मंत्री ममता बनर्जी के रेल सुरक्षा एवं संरक्षा के दावों की हवा अपने आप निकल गई है। उत्तर प्रदेश में हुई तीन रेल दुर्घटनाओं ने साफ कर दिया है कि आजादी के साठ सालों बाद भी हिन्दुस्तान का यह परिवहन सिस्टम कराह ही रहा है।

भले ही रेल अधिकारी इन रेल दुर्घटनाओं का ठीकरा कोहरे के सर पर फोडने का जतन कर रहे हों, पर वास्तविकता सभी जानते हैं। कोहरा कोई पहली मर्तबा हवा में नहीं तैरा है। साल दर साल दिसंबर से जनवरी तक कुहासे का कुहराम चरम पर होता है। अगर पहली बार कोहरा आया होता तो रेल अधिकारियों की दलीलें मान भी ली जातीं।

सौ टके का प्रश्न तो यह है कि जब इलाहाबाद रेल मण्डल के दोनों रेल्वे ट्रेक पर ऑटोमेटिक ब्लाक सिस्टम लगे हैं तब इन स्वचलित यंत्रों के होने के बाद हादसे के घटने की असली वजह आखिर क्या है। जाहिर सी बात है कि या तो इस सिस्टम ने काम नहीं किया या फिर रेल चालकों ने इनकी अनदेखी की। प्रत्यक्षदर्शी तो यह भी कह रहे हैं कि जहां दुर्घटना हुई वहां लगभग आधे से एक किलोमीटर की दृश्य क्षमता (विजिबिलटी) थी।

जब भी कोई रेल मंत्री नया बनता है वह बजट में अपने संसदीय क्षेत्र और प्रदेश के लिए रेलगाडियों की बौछार कर देता है। अधिकारी उस टे्रक पर यातायात का दबाव देखे बिना ही इसका प्रस्ताव करने देते हैं। देखा जाए तो बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के रेलमंत्रियों ने अपने अपने सूबों के लिए रेलगाडियों की तादाद में गजब इजाफा किया है। देश के अनेक हिस्से रेल गाडियों के लिए आज भी तरस ही रहे हैं।

भारतीय रेल आज भी बाबा आदम के जमाने के सुरक्षा संसाधनों की पटरी पर दौडने पर मजबूर है। उत्तर प्रदेश के आगरा के बाद उत्तर भारत में प्रवेश के साथ ही शीत ऋतु में भारतीय रेल की गति द्रुत से मंथर हो जाती है। आम दिनों में मथुरा के उपरांत रेल रेंगती ही नजर आती है, क्योंकि देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली को आने वाली कमोबेश अस्सी फीसदी रेलगाडियों के लिए मथुरा एक गेट वे का काम करता है। दक्षिण और पश्चिम भारत सहित अन्य सूबों से आने वाली रेल गाडियों की संख्या इस लाईन पर सर्वाधिक ही होती है।

उत्तर भारत में आज भी घने कोहरे में भारतीय रेल पटाखों के सहारे ही चलती है। दरअसल रेलकर्मी कोहरे के समय में सिग्नल आने की कुछ दूरी पहले रेल की पांत पर पटाखा बांध देते हैं। यह पटाखा इंजन के जितने भार से ही फटता है। इसकी तेज आवाज से रेल चालक को पता चल जाता है कि सिग्नल आने वाला है, इस तरह वह सिग्नल आने तक सतर्कता के साथ रेल को चलाता है।

आईआईटी कानपुर के साथ रेल मंत्रालय ने मिलकर एंटी कोलीजन डिवाईस बनाने का काम आरंभ किया था, जिसमें रेल दुर्घटना के पहले ही रेल के पहियों को जाम कर दुर्घटना के आघात को कम किया जा सकता था। विडम्बना ही कही जाएगी कि इस डिवाईस के लिए सालों बाद आज भी परीक्षण जारी हैं।

सन 2008 और 2009 में देखा जाए तो 17 रेलगाडियां सीधी आपस में ही भिड गईं, 85 रेल हादसे पटरी पर से उतरने के तो 69 हादसे रेल्वे की क्रासिंग के कारण हुए। इतना ही नहीं आगजनी के चलते 3 हादसों में भारतीय रेल द बर्निंग ट्रेन बनी। 2008, 09 में कुल 180 रेल दुर्घटनाओं में 315 लोग असमय ही काल के गाल में समा गए। रेल्वे के संधारण का आलम यह है कि आज भी रेल्वे संरक्षा से जुडे लगभग नब्बे हजार पद भर्ती के इंतजार में रिक्त हैं। देश में साढे सोलह हजार रेल्वे फाटक आज भी बिना चौकीदार के ही चल रहे हैं।

भारतीय रेल में दुर्घटनाएं न हो इसके लिए बीते हादसों से सबक लेने की महती जरूरत है। 01 अक्टूॅबर 2001 को पंजाब के खन्ना में हुए रेल हादसे के बाद 2006 तक के लिए सत्तरह हजार करोड रूपए का रेल संरक्षा फंड बनाया गया था। इस फंड से भारतीय रेल के सभी पुराने यंत्रों और सिस्टम को बदलने का प्रावधान किया गया था। विडम्बना ही कही जाएगी कि यह फंड तो खत्म हो गया किन्तु भारतीय रेल का सिस्टम नहीं सुधर सका।

स्वयंभू प्रबंधन गुरू और पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के लिए यह हादसा तो जैसे सुर्खियों में वापस आने का साधन हो गया है। हादसे के बाद पानी पी पी कर लालू ने ममता को कोसा। वैसे लालू का यह कहना सही है कि अगर घने कोहरे को ही दोष दिया जा रहा है तो विजिबिलटी के अभाव में रेल के परिचालन की अनुमति आखिर कैसे दी गई।

नए साल पर रेल यात्रियों को तोहफे के तौर पर रेल मंत्री ममता बनर्जी ने इस तरह की भीषण दुर्घटनाएं ही दी हैं। रेलमंत्री अगर चाहतीं और भारतीय रेल की व्यवस्था में वांछित सुधार कर दिए जाते तो संभवत: इन हादसों को रोका जा सकता था। ममता अपनी कर्मभूमि बंगाल में हैं और 05 जनवरी को वे अपना जन्मदिन जोर शोर से मनाना चाह रहीं थीं। इस रेल हादसे के बाद उनके जन्मदिन के जश्न में रंग में भंग पड गया है।

रेलमंत्री ममता बनर्जी भारतीय रेल के लिए विजन 2020 का खाका तैयार कर रहीं हैं पर उसका आधार इतना अस्पष्ट है कि यह बनने के पहले ही धराशायी हो जाएगा। ”मुस्कान के साथ” यात्रा का दावा करने वाली भारतीय रेल के अधिकारी इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि चाहे जो भी रेल मंत्री आए, साथ में बुलट ट्रेन के ख्वाब दिखाए पर भारत की रेलों की पांते अभी तेज गति और ज्यादा बोझ सहने के लिए कतई तैयार नहीं है। ”रेल सुरक्षा, जीवन रक्षा” अब गुजरे जमाने की बात होती ही प्रतीत हो रही है।लिमटी खरे

Sunday, January 3, 2010

आपसी तालमेल में छिपा है विकास का राज

झारखंड में चुनाव बाद लोकप्रिय सरकार का गठन हो गया है. करीब 11 माह का राष्ट्रपति शासन समाप्त हो चुका है. नयी सरकार के सामने कई अवसर और कई चुनौतियां हैं. विकास के कार्यो में पारदर्शिता लाते हुए इसका लाभ आम लोगों तक पहुंचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. नयी सरकार की प्राथमिकताएं और क्या हो सकती हैं, इस पर हम एक श्रंखला प्रारंभ कर रहे हैं, जिसमें देश के प्रबुद्ध लोग अपने विचार रखेंगे. प्रस्तुत है इसकी पहली कड़ी.





किसी भी आम चुनाव के बाद जिस सरकार का गठन होता है, उससे देश-प्रदेश की जनता की बेहतरी की उम्मीद करना स्वाभाविक है. झारखंड में जिस तरह की परिस्थितियों के बीच वहां की जनता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था जताते हुए मतदान में भाग लिया, वह काबिले-तारीफ़ है. जहां तक नवगठित झारखंड सरकार की प्राथमिकता की बात है, तो सबसे पहले हमें प्रदेश की जनता द्वारा ङोली जा रही समस्याओं को ध्यान में रखना होगा.झारखंड के निर्माण के बाद से वहां भ्रष्टाचार ने ऊ पर से नीचे तक अपनी जड़ें बड़ी गहराई से जमायी हैं. गठन के बाद से ही भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए. इससे प्रदेश के बाहर भी झारखंड की छवि खराब हुई है. इस भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना वहां की सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि सुशासन की राह पर प्रदेश को बढ़ाया जा सके. लेकिन केवल कह देने मात्र से या घोषणा कर देने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होनेवाला. इसके लिए कठोर कदम उठाये जाने की जरूरत है. बिना राजनीतिक इच्छाशक्ित और जन-जागरूकता के यह संभव नहीं है. साथ ही साथ भ्रष्टाचार के जो भी मामले सामने आते हैं, उनमें त्वरित कार्रवाई की व्यवस्था कर ही हम लूट-खसोट की परंपरा को खत्म कर सकते हैं.



एक और महत्वपूर्ण बात है कि जो भी सरकारें वहां सत्ता में हैं, वह राजनीतिक रूप से भले ही एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी हों, लेकिन प्रदेश के विकास के प्रश्न पर सभी को एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए नीतियों का निर्माण करना चाहिए. तभी वहां विकास की गति को तेज किया जा सकता है. आज यह देखने में आता है कि सरकार और उसके सहयोगी व प्रमुख विपक्षी दल के राजनीतिक हित टकराने के कारण हम ऐसी पॉलिसी नहीं बना पाते, जिनमें प्रदेश के लोगों की भलाई छुपी हो. बेहतर नीतियों के अभाव में झारखंड जैसे संसाधन-संपन्न राज्य भी विकास के मामले में पिछड़ जाते हैं और सीमित अर्थो में विकास होता भी है, तो उसका लाभ कुछ खास लोगों तक सिमट कर रह जाता है. सरकार अगर नेक इरादों से विपक्ष को साथ लेकर सुशासन के रास्ते पर आगे बढ़े, तो निश्चित रूप से प्रदेश का विकास होगा. केवल इकट्ठे होकर सरकार बनाने से काम नहीं चलनेवाला, बल्कि साथ-साथ सरकार चलाने में प्रदेश की जनता की भलाई का राज छिपा हुआ है.विगत वर्षो में झारखंड में एक और प्रवृत्ति देखने को आयी है. बिजनेस घरानों की दावेदारी और उनके काम की जांच किये बिना सरकार द्वारा उनके पक्ष में व्यवसाय के लिए एमओयू यानी सहमति पत्र जारी किये जाते रहे हैं. इस प्रवृत्ति ने प्रदेश का बहुत ही नुकसान किया है. मेरा मानना है कि उद्योग व व्यवसाय के एमओयू हों, लेकिन इस प्रक्रिया में पूरी तरह से पारदर्शिता अपनायी जाये. कोई भी सरकार चाहे वह प्रदेश की हो या केंद्र की, अगर सुशासन लाना चाहती है, तो उसे व्यवस्था में पारदर्शिता अपनानी होगी. कोयले के खदानों या अन्य खनिज पदार्थो किसी भी बिजनेस घराने को दिये जाते हैं, तो उस प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बनाया जाना जरूरी है. साथ ही मॉनिटिरिंग के स्तर पर भी सुधार हो.नक्सलवाद की बात अक्सर की जाती है, लेकिन इसके मूल में जो बातें छुपी हुई है, उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है. सरकार को गरीब तबके के कल्याण के लिए बिना किसी भेदभाव के कदम उठाने चाहिए. ऐसा कर सरकार सुशासन में उनकी आस्था जगा सकती है. अगर जनता के खिलाफ़ भेदभावपूर्ण नीति अपनायेंगे और उनके दुख-दर्द को दूर करने का समुचित प्रबंध नहीं करेंगे, तो व्यवस्था के विरुद्ध असंतोष फ़ैलना स्वाभाविक है. इस असंतोष को भुनाने के बजाय उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए.

सौजन्य-हरबंश जी